________________ बारहवां शतक : उद्देशक 4] [165 मनःपुद्गलपरिवर्त्त कहाँ और कहाँ नहीं ?-मन संज्ञी पंचेन्द्रियों के होता है, इसलिए पंचेन्द्रिय जीवों में एक से लेकर अनन्त तक मनःपुद्गल परिवत्तं होते हैं, हुए हैं, होंगे / किन्तु जिनमें इन्द्रियों की परिपूर्णता नहीं है, उन विकलेन्द्रिय (एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक के) जीवों में मन का अभाव है, इसलिए उनमें मन:पुद्गल-परिवर्तन नहीं होता / विकलेन्द्रिय शब्द से यहाँ एकेन्द्रिय का भी ग्रहण होता है। वचनपुद्गलपरिवर्त-एकेन्द्रिय जीवों के वचन नहीं होता, इसलिए उन्हें छोड़ कर शेष समस्त संसारी जीवों के (द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य, और देव) के वचनपुद्गलपरिवर्त पूर्ववत् होते हैं।' आन-प्राण-पुदगल परिवर्त-- श्वासोच्छ्वास एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक सभी संसारी जीवों के होता है, इसलिए पानप्राणपुद्गलपरिवर्त सभी जीवों में एक से लेकर अनन्त तक होता है / बहुत्व को अपेक्षा से नैरयिकादि जीवों के नरयिकत्वादिरूप में अतीत-अनागत सप्तविध पुद्गल-परिवर्त-निरूपण 40. [1] नेरइयाणं भंते ! नेरइयत्ते केवतिया पोरालियपोग्गलपरियट्टा अतीया ? नत्थेक्को वि। [40-1 प्र.] भगवन् ! अनेक नै रयिक जीवों के नैरयिक भव में अतीतकालिक औदारिक पुद्गल-परिवर्त्त कितने हुए हैं ? [40-1 उ.] गौतम ! एक भी नहीं हुआ। [2] केवइया पुरेक्खडा ? नत्थेक्को वि। [40-2 प्र.] भगवन् ! (अनेक नैरयिक जीवों के नैरयिक भव में) भविष्य में कितने (प्रौदारिकपुद्गलपरिवर्त) होंगे ? [40-1 उ.] गौतम ! भविष्य में एक भी नहीं होगा। 41. एवं जाव थणियकुमारत्ते / [41] इसी प्रकार (अनेक नैरयिक जीवों के असुरकुमार भव से लेकर) यावत् स्तनितकुमार भव तक (कहना चाहिए / ) 42. [1] पुढविकाइयत्ते पुच्छा ? प्रणंता। [42-1 प्र.] भगवन्! अनेक नैरयिक जीवों के पृथ्वीकायिकपन में (अतीतकालिक औदारिकपुद्गलपरिवत्तं) कितने हुए हैं। [42-1 उ.] गौतम! अनन्त हुए हैं / 1. भगवती. अ. वृत्ति पत्र 569 2. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), पृ. 585 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org