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________________ 166] [ब्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [2] केवतिया पुरेक्खडा ? अणंता। [42-2 प्र.] भगवन् ! (अनेक नै रयिकों के पृथ्वीकायिकपन में) भविष्य में (औदारिक पुद्गलपरिवर्त) कितने होंगे? [42-2 उ.] गौतम ! अनन्त होंगे / 43. एवं जाव मणुस्सत्ते। 643] जिस प्रकार अनेक नैरयिकों के पृथ्वीकायिकपन में अतीत-अनागत औदारिकपुद्गलपरिवत्तं के विषय में कहा है, उसी प्रकार यावत् मनुष्य भव तक कहना चाहिए। 44. वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणियत्ते जहा नेरइयत्ते। [44] जिस प्रकार अनेक नैरयिकों के नैरयिकभव में अतीत-अनागत औदारिकपुद्गलपरिवर्त के विषय में कहा है, उसी प्रकार उनके वाणव्यन्तर ज्योतिष्क और वैमानिक देव के भव में भी कहना चाहिए। 45. एवं जाव वेमाणियस्स वेमाणियत्ते / [45] (अनेक नैरयिकों के वैमानिक भव तक का औदारिकपुद्गलपरिवर्त्तविषयक कथन किया) उसी प्रकार यावत् अनेक वैमानिकों के वैमानिक भव तक (कथन करना चाहिए) / 46. एवं सत्त वि पोग्गलपरियट्टा भाणियचा / जत्थ अस्थि तत्थ अतीता वि, पुरेक्खडा वि अणंता भाणियन्वा / जत्थ नत्थि तत्थ दो वि 'नस्थि भाणियव्वा जाव वेमाणियाणं वेमाणियत्ते केवतिया प्राणापाणुपोग्गलपरियट्टा प्रतीया ? अणंता / केवतिया पुरेक्खडा ? अणंता। [46] जिस प्रकार औदारिकपुद्गलपरिवर्त्त के विषय में कहा, उसी प्रकार शेष सातों पुद्गलपरिवत्र्तों का कथन कहना चाहिए / जहाँ जो पुद्गलपरिवर्त हो, वहाँ उसके अतीत (भूतकालिक) और पुरस्कृत (भविष्यत्कालीन) पुद्गलपरिवर्त अनन्त-अनन्त कहने चाहिए। जहाँ नहीं' हों, वहाँ अतीत और पुरस्कृत (अनागत) दोनों नहीं कहने चाहिए / यावत्-(प्रश्न) 'भगवन् ! अनेक वैमानिकों के वैमानिक भव में कितने प्रान-प्राण-पुद्गलपरिवर्त्त (अतीत में) हुए ? (उत्तर-) गौतम ! अनन्त हुए हैं / (प्रश्न-) 'भगवन् ! आगे (भविष्य में) कितने होंगे? (उत्तर-) 'गौतम ! अनन्त होंगे।' यहाँ तक कहना चाहिए। विवेचन प्रस्तुत सात सूत्रों में (सू. 40 से 46 तक) अनेक नैरयिकों से लेकर अनेक वैमानिकों (चौवीस दण्डकों) तक के नैरयिकभव से लेकर वैमानिकभव तक में प्रतीत-अनागत सप्तविधपुद्गल-परिवत्तों की संख्या का निरूपण किया गया। पूर्वसूत्रों में एकत्व की अपेक्षा से प्रतिपादन था, इन सूत्रों में बहुत्व की अपेक्षा से कथन है / शेष सब का अतिदेशपूर्वक कथन किया गया है / __कठिन शब्दार्थ--एगुत्तरिया-एक से लेकर उत्तरोत्तर संख्यात, असंख्यात या अनन्त तक / नेरइयत्ते-नैरयिक के रूप में अर्थात्-नारक के भव में नरयिक पर्याय में / ' 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 569, (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 4, पृ. 2038 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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