________________ बारहवां शतक : उद्देशक 4] [167 47. से केण? गं भंते ! एवं वुच्चइ 'पोरालियपोग्गलपरियट्ट, ओरालियपोग्गलपरियट्ट' ? गोयमा ! जं जं जीवेणं ओरालियसरीरे वट्टमाणेणं ओरालियसरीरपायोग्गाई दवाई ओरालियसरीरत्ताए गह्यिाई बढाई पुट्ठाई कडाइ घट्टवियाई मिविट्ठाई अभिनिविट्ठाई अभिसमन्नागयाई परियाइयाइं परिणामियाई निजिण्णाई निसिरियाई निसिट्ठाई भवंति, से तेग?णं गोयमा ! एवं वुच्चइ 'ओरालियपोग्गलपरियट्ट, ओरालियपोग्गलपरिय?'। [47 प्र.| भगवन् ! यह प्रोदारिक पुद्गल-परिवर्त्त, औदारिक पुद्गल-परिवर्त्त किसलिए कहा जाता है ? [47 उ.] गौतम ! औदारिक शरीर में रहते हए जीव ने औदारिक शरीर योग्य द्रव्यों को औदारिक शरीर के रूपमें ग्रहण किये हैं, बद्ध किये हैं (अर्थात-जीव प्रदेशों के साथ एकमेक किये हैं।) (शरीर पर रेणु के समान) स्पृष्ट किये हैं; (अथवा अपर-अपर ग्रहण करके उन्हें) पोषित किये हैं; उन्हें (पूर्वपरिणामापेक्षया परिणामान्तर) किया है। उन्हें प्रस्थापित (स्थिर) किया है; (स्वयं जीव ने) निविष्ट (स्थापित किये हैं, अभिनिविष्ट (जीव के साथ सर्वथा संलग्न) किये हैं; अभिसमन्वागत (जीव ने रसानुभूति का आश्रय लेकर सबको समाप्त) किया है। (जीव ने रसग्रहण द्वारा सभी अवयवों से उन्हें) पर्याप्त कर लिये हैं। परिणामित (रसानुभूति से ही परिणामान्तर प्राप्त) कराये हैं, निर्जीर्ण (क्षीण रस वाले) किये हैं (जीव प्रदेशों से उन्हें) निःसृत (पृथक्) किये हैं, (जीव के द्वारा) निःसृष्ट (अपने प्रदेशों से परित्यक्त) किये हैं। हे गौतम ! इसी कारण से औदारिकपुद्गलपरिवत्तं प्रौदारिकपुद्गलपरिवर्त्त कहलाता है। 48. एवं वेउब्बियपोग्गलपरियट्ट वि, नवरं बेउन्वियसरीरे वट्टमाणेणं वेउब्वियसरीरपायोग्गाई दवाई वेउव्वियसरीरताए / सेसं तं चेव सव्वं / [48] इसी प्रकार (पूर्वोक्तवत्) वैक्रियपुद्गल-परिवत्त के विषय में भी कहना चाहिए / परन्तु इतना विशेष है कि.जीव ने वैक्रिय शरीर में रहते हए वैक्रिय शरीर योग्य द्रव्यों को वैक्रिय शरीर के रूप में ग्रहण किये हैं, इत्यादि शेष सब कथन पूर्ववत् कहना चाहिए / 49. एवं जाव आणापाणुपोग्गलपरियट्ट, नवरं आणापाणुपायोग्गाइं सव्वदव्वाइं आणापाणुत्ताए / सेसं तं चेव / [46] इसी प्रकार (तेजस, कार्मण से लेकर) यावत् पान-प्राण, द्गल-परिवर्त तक कहना चाहिए / विशेष यह है कि प्रान-प्राण-योग्य समस्त द्रव्यों का आन-प्राण रूप से जीव ने ग्रहण किये हैं, इत्यादि (सब कथन करना चाहिए। शेष सब कथन भी पूर्ववत् जानना चाहिए। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र (47) में औदारिक पुद्गल परिवर्त्त कहलाने के 13 कारणों पर प्रकाश डालते हुए 13 प्रक्रियाएँ बताई गई हैं-(१) गृहीत, (1) बद्ध, (3) स्पृष्ट या पुष्ट, (4) कृत, (5) प्रस्थापित, (6) निविष्ट, (७)अभिनिविष्ट, (8) अभिसमन्वागत, (6) पर्याप्त, (10) परिणामित, (11) निर्जीर्ण (12) निःसृत और (13) नि:सृष्ट। इन तेरह प्रक्रियाओं में से औदारिक शरीर योग्य द्रव्यों के गुजरने के कारण ही वह औदारिक पुद्गल-परिवर्त्त कहलाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org