SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1433
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 168] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र इन सब का भावार्थ कोष्ठक में दे दिया है / इनमें से प्रथम. (गहियाइं बद्धाई आदि) चार क्रियापद औदारिक पुद्गलों के ग्रहणविषयक हैं, तदनन्तर पांच क्रियापद (पट्टवियाई आदि) स्थितिविषयक हैं। इनसे आगे के 'परिणामियाई' आदि चार पद प्रौदारिक पुद्गलों को प्रात्मप्रदेशों से पृथक् करने के विषय में हैं। औदारिकपुद्गल परिवर्त्त के समान ही अन्य सभी पुद्गलपरिवर्तों की प्रक्रियाएँ हैं, वहाँ केवल 'नाम' बदल जाता है, शेष सब कथन समान है।' सप्तविध पदगलपरिवतों का निर्वर्तनाकालनिरूपण 50. ओरालियपोग्गलपरियणं भंते ! केवतिकालस्स निव्वत्तिज्जति ? गोयमा ! अणताहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि, एवतिकालस्स नित्तिज्जइ / [50 प्र.] भगवन् ! औदारिक-पुद्गल-परिवर्त्त कितने काल में निर्वत्तित-निष्पन्न होता है ? [50 उ.] गौतम ! (ौदारिक-पुद्गल-परिवर्त) अनन्त उत्सर्पिणी और अवसर्पिणीकाल में निष्पन्न होता है। 51. एवं वेउव्वियपोग्गलपरियट्ट वि। [51] इसी प्रकार (पूर्ववत्) वैक्रिय-पुद्गल-परिवर्त का निष्पत्तिकाल जानना चाहिए। 52. एवं जाव प्राणापाणुपोग्गलपरियट्ट। {52] इसी प्रकार (ौदारिकपुद्गलपरिवर्त्त-निष्पत्तिकाल के समान ही शेष पांच पुद्गलपरिवर्त) यावत् प्रान-प्राण-पुद्गल परिवर्त (का निष्पत्तिकाल जानना जाहिए / ) विवेचन-सप्तविध पुद्गल-परिवर्त्त निष्पत्तिकाल इतना क्यों ? प्रौदारिक आदि सातों ही पुद्गलपरिवत्तों में से प्रत्येक पुद्गलपरिवर्त अनन्त उत्सपिणी-अवसर्पिणीकाल में निष्पन्न होता है, उसका कारण यह है कि पुद्गल अनन्त हैं और उनका ग्राहक एक ही जीव होता है / तथा किसी भी पुद्गलपरिवर्त में पूर्वगृहीत पुद्गलों की गणना नहीं की जाती / / निव्वत्तिज्जइ : अर्थ निर्तित-निष्पन्न-परिपूर्ण होता है। सप्तविध पुद्गल-परिवर्तों के निष्पत्तिकाल का अल्प-बहुत्व 53. एतस्स णं भंते ! ओरालियपोग्गलपरियट्टनिव्वत्तणाकालस्स, वेउब्धियपोग्गलपरियट्टनिव्वत्तणाकालस्स, जाव आणापाणुपोग्गलपरियट्टनिव्वत्तणाकालस्स य कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया वा? 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 569-570 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा-४, पृ. 2042 (ग) क्यिापण्णत्तिमुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण) पृ. 586 2. भगवती. अ. वत्ति, पत्र 570 3. भगवती. (हिन्दी-विवेचन) भा. 4, पृ. 2043 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy