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________________ तइओ उद्देसओ : 'थावर' तृतीय उद्देशक : 'स्थावर' वनस्पतिकायिक जीवों के सर्वाल्पाहारकाल एवं सर्वमहाकाल की वक्तव्यता 1. वणस्सतिकाइया णं भते ! के कालं सम्वष्पाहारगा वा सव्वमहाहारगा वा भवंति ? गोयमा ! पाउस-वरिसारत्तेसु णं एत्थ णं वणस्सतिकाइया सव्वमहाहारगा भवंति, तदाणंतरं च णं सरदे, तयाणंतरं च णं हेमंते, तदाणंतरं च णं वसंते, तदाणंतरं च गं गिम्हे / गिम्हासु णं वणस्सतिकाइया सव्वघ्पाहारगा भवंति / [1 प्र.] भगवन् ! वनस्पतिकायिक जीव किस काल में सर्वाल्पाहारी (सबसे थोड़ा आहार करने वाले) होते हैं और किस काल में सर्वमहाहारी (सबसे अधिक आहार करने वाले) होते हैं ? [1 उ.] गौतम ! प्रावट (पावस) ऋतु (श्रावण और भाद्रपद मास) में तथा वर्षा ऋतु (आश्विन और कार्तिक मास) में वनस्पतिकायिक जीव सर्वमहाहारी होते हैं। इसके पश्चात् शरद् ऋतु में, तदनन्तर हेमन्त ऋतु में, इसके बाद वसन्त ऋतु में और तत्पश्चात् ग्रीष्म ऋतु में बनस्पतिकायिक जीव क्रमश: अल्पाहारी होते हैं / ग्रीष्म ऋतु में वे सर्वाल्पाहारी होते हैं। 2. जति गंभते ! गिम्हासु वणस्सइकाइया सवप्पाहारगा भवंति, कम्हा गं भते ! गिम्हासु बहवे वणस्सतिकाइया पत्तिया पुफिया फलिया हरितगरेरिज्जमाणा सिरीए अतीव प्रतीव उवसोमेमाणा उवसोमेमाणा चिट्ठति ? ___ गोयमा! गिम्हासु णं बहवे उसिणजोणिया जीवा य पुग्गला य वणस्सतिकाइयत्ताए वक्कमंति विउक्कमति चयंति उववज्जंति, एवं खलु गोयमा ! गिम्हासु बहवे वणस्सतिकाइया पत्तिया पुफिया जाव चिट्ठति। _[2 प्र.] भगवन् ! यदि ग्रीष्म ऋतु में वनस्पतिकायिक जीव सर्वाल्पाहारी होते हैं, तो बहुतसे वनस्पतिकायिक ग्रीष्मऋतु में पत्तों वाले, फूलों वाले, फलों वाले, हरियाली से देदीप्यमान (हरेभरे) एवं श्री (शोभा) से अतीव सुशोभित कैसे होते हैं ? [2 उ.] हे गौतम ! ग्रीष्म ऋतु में बहुत-से उष्णयोनि वाले जीव और पुद्गल वनस्पतिकाय के रूप में उग (उत्पन्न हो जाते हैं, विशेषरूप से उत्पन्न होते हैं, वृद्धि को प्राप्त होते हैं, और विशेषरूप से वृद्धि को प्राप्त होते हैं। हे गौतम ! इस कारण से ग्रीष्म ऋतु में बहुत-से वनस्पतिकायिक पत्तों वाले, फूलों वाले, फलों वाले यावत् सुशोभित होते हैं / विवेचन-वनस्पतिकायिक जीवों के सर्वाल्पाहारकाल एवं सर्वमहाहारकाल को वक्तव्यता-- उद्देशक के प्रारम्भिक इन दो सूत्रों में वनस्पतिकायिक जीव किस ऋतु में सर्वमहाहारी और किस ऋतु में सर्वाल्पाहारी होते हैं, और क्यों ? यह सयुक्तिक निरूपण किया गया है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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