________________ दशम शतक : उद्देशक-२] [1-2] यदि वह (अकृत्यसेवी साधु) उस अकृत्यस्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण करके काल करता है, तो उसके अाराधना होती है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है ! हे भगवन् ! यह उसी प्रकार है। विवेचन--आराधक-विराधक भिक्षु-प्रस्तुत तीन सूत्रों (7-8-6) में आराधक और विराधक भिक्षु की 6 कोटियां बताई गई हैं.. (1) अकृत्यस्थान का सेवन करके आलोचना-प्रतिक्रमण किये बिना ही काल करने वाला : अनाराधक (विराधक)। (2) अकृत्यस्थान का सेवन करके आलोचना-प्रतिक्रमण कर काल करने वाला : आराधक / (3) अकृत्यस्थानसेवी, अन्तिम समय में अालोचनादि करके प्रायश्चित्त स्वीकार करने की भावना करने वाला वाला, किन्तु आलोचना-प्रतिक्रमण किये विना ही काल करने वाला : अनाराधक / (4) अकृत्यस्थानसेवी, अन्तिम समय में पालोचनादि करने का भाव और पालोचना प्रतिक्रमण करके काल करने वाला : पाराधक / (5) अकृत्यस्थानसेवी, श्रमणोपासकवत् देवगति प्राप्त कर लूंगा, इस भावना से आलोचनादि किये विना ही काल करने वाला : अनाराधक / (6) अकृत्यस्थानसेवी, श्रमणोपासकवत् देवगति प्राप्ति की भावना, किन्तु आलोचनादि करके काल करने वाला : पाराधक।' // दशम शतक : द्वितीय उद्देशक समाप्त / / 1. वियाहपण्ण त्तिसूतं (मूलपाठ-टिप्पण) भा. 2, पृ. 489-490 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org