________________ 592] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र अकृत्यसेवी भिक्षु : कब अनाराधक, कब पाराधक ? 7. [1] भिक्खू य अनयरं अकिच्चट्ठाणं पडिसेवित्ता, से णं तस्स ठाणस्स अणालोइयऽपडिते कालं करेति नत्थि तस्स आराहणा। [7-1] कोई भिक्षु किसी प्रकृत्य (पाप) का सेवन करके, यदि उस अकृत्यस्थान की आलोचना तथा प्रतिक्रमण किये बिना ही काल कर (मर) जाता है तो उसके अाराधना नहीं होती। [2] से णं तस्स ठाणस्स आलोइयपडिक्कते कालं करेति अस्थि तस्स आराहणा। [7-2] यदि वह भिक्षु उस सेवित अकृत्यस्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण करके काल करता है, तो उसके आराधना होती है / 8. [1] भिक्खू य अन्नयरं अकिच्चट्ठाणं पडिसेवित्ता, तस्स णं एवं भवति पच्छा वि णं अहं चरिमकालसमयंसि एयरस ठाणस आलोएस्सामि जाव पडिवज्जिस्सामि, से णं तस्स ठाणस्स अणालोइयऽपडिक्कते जाव नस्थि तस्स माराहणा। 8.1] कदाचित् किसी भिक्ष ने किसी प्रकृत्यस्थान का सेवन कर लिया, किन्तु बाद में उसके मन में ऐसा विचार उत्पन्न हो कि मैं अपने अन्तिम समय में इस प्रकृत्यस्थान को पालोचना करूंगा यावत् तपरूप प्रायश्चित्त स्वीकार करूंगा; परन्तु वह उस अकृत्यस्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण किये बिना ही काल कर जाए, तो उसके आराधना नहीं होती। [2] से णं तस्स ठाणस्स आलोइयपडिक्कते कालं करेइ अस्थि तस्स आराहणा। [8-2] यदि वह (अकृत्यस्थानसेवी भिक्षु) अालोचन और प्रतिक्रमण करके काल करे, तो उसके आराधना होती है / 9. [1] भिक्खू य अन्नयर अकिच्चट्ठाणं पडिसेवित्ता, तस्स णं एवं भवति–'जइ ताव समणीवासगा वि कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेसु देवलोगेसु देवत्ताए उपवत्तारो भवंति किमंग पुण अहं अणपन्नियदेवत्तणं पिनो लभिस्सामि ?' त्ति कटु से णं तस्स ठाणस्स अणालोइयऽपडिक्कते कालं करेति नत्थि तस्स आराहणा। [6-1] कदाचित् किसी भिक्षु ने किसी प्रकृत्यस्थान का सेवन कर लिया हो और उसके बाद उसके मन में यह विचार उत्पन्न हो कि श्रमणोपासक भी काल के अवसर पर काल करके किन्हों देवलोकों में देवरूप में उत्पन्न हो जाते हैं, तो क्या मैं अणपनिक देवत्व भी प्राप्त नहीं कर सकंगा?, यह सोच कर यदि वह उस अकृत्य स्थान की प्रालोचना और प्रतिक्रमण किये बिना ही काल कर जाता है, तो उसके पाराधना नहीं होती। [2] से गं तस्स ठाणस्स आलोइयपडिक्कते कालं करेति अस्थि तस्स आराहणा। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० / ॥वसमे सए बीओ उद्देसओ समत्तो // 10-2 // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org