________________ बशम शतक : उद्देशक-२] [591 हैं, वे निदा और जो असंज्ञीभूत हैं वे अनिदा वेदना वेदते हैं----यथा-असंज्ञीभूत पांच स्थावर और तीन विकलेन्द्रिय / ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के दो प्रकार हैं--मायी मिथ्यादृष्टि और अमायी सम्यग्दृष्टि / मायी मिथ्या दृष्टि अनिदावेदना वेदते हैं और अमायी सम्यग्दृष्टि निदा वेदना बेदते हैं।' वेदनासम्बन्धी विस्तृत वर्णन प्रज्ञापनागत वेदनापद में है / मासिक मिरुप्रतिमा की वास्तविक पाराधना-- 6. मासियं णं भंते ! भिक्खुपडिम पडियन्नस्स प्रणगारस्स निच्चं वोसट्टे काये चियत्ते देहे, एवं मासिया भिवखुपडिमा निरवसेसा भाणियव्वा जहा दसाहिं जाव आराहिया भवति / [6 प्र.] भगवन् ! मासिक भिक्षप्रतिमा जिस अनगार ने अंगीकार की है तथा जिसने शरीर (के प्रति ममत्व) का त्याग कर दिया है और (शरीरसंस्कार आदि के रूप में) काया का सदा के लिए व्युत्सर्ग कर दिया है, इत्यादि दशाश्रुतस्कन्ध में बताए अनुसार मासिक भिक्षु-प्रतिमा सम्बन्धी समग्र वर्णन (बारहवीं भिक्षुप्रतिमा तक) करना चाहिए, यावत् (तभी) पाराधित होती है, यहाँ तक कहना चाहिए। विवेचन-भिक्षुप्रतिमा की वास्तविक आराधना--यहाँ छठे सूत्र में मासिक भिक्षुप्रतिमा को स्वीकार किये हुए भिक्षु की भिक्षुप्रतिमाऽऽराधना के विषय में दशाश्रुतस्कन्ध की सातवीं दशा का हवाला देकर यह बताया है कि ऐसा भिक्षु स्नानादि शरीरसंस्कार के त्याग के रूप में काया का व्युत्सर्ग कर देता है तथा शरीर के प्रति ममत्व का त्याग कर देता है, ऐसी स्थिति में जो कोई परिषह या देवकृत, मनुष्यकृत या तिर्यञ्चकृत उपसर्ग उत्पन्न होते हैं, उन्हें सम्यक प्रकार से सहता है, स्थान से विचलित न होकर क्षमाभाव धारण कर लेता है, दीनता न लाकर तितिक्षा करता है, समभाव से मन-वचन-काया से सहता है, तो उसकी भिक्षुप्रतिमा पाराधित होती है / भिक्षुप्रतिमा : स्वरूप और प्रकार साधु की एक प्रकार की प्रतिज्ञा (अभिग्रह) विशेष को भिक्षुप्रतिमा कहते हैं। यह बारह प्रकार की है। पहली से लेकर सातवी प्रतिमा तक क्रमश: एक मास से लेकर सात मास की हैं / आठवीं, नौवीं और दसवीं प्रतिमा प्रत्येक सात-अहोरात्र की होती हैं / ग्यारहवीं प्रतिमा एक अहोरात्र की और बारहवीं भिक्षुप्रतिमा केवल एक रात्रि की होती है। इसका विस्तृत वर्णन दशाश्रुतस्कन्ध की सातवीं दशा में है। भावार्थ-दोस?काए-स्नानादि शरीरसंस्कार त्याग कर काम का व्युत्सर्ग कर दिया। चहत्ते देहे-(१) कोई भी व्यक्ति मारे-पीटे या शरीर पर प्रहार करे तो भी निवारण न करे, इस प्रकार से शरीर के प्रति ममत्व का त्याग कर दिया हो, अथवा चियत्ते-देह को धर्मसाधन के रूप में प्रधानता से मान कर / / 1. (क) बही 35 वां वेदनापद (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 497 2. (क) दशाश्रुतस्कन्ध की सातवीं साधुप्रतिमादशा पत्र, 44-46 / (मणिविजयग्रन्थमाला-प्रकाशन) (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 498 3. (क) वही, पत्र 498 (ख) भगवती. विवेचन भा. 4 (पं. घेवरचंदजी), पृ. 1799 4. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 498 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org