________________ 446] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र |23-2 प्र.] भगवन् ! यदि वह सवेदी होता है तो क्या स्त्रीवेदी होता है, पुरुषवेदी होता है अथवा नपुसकवेदी होता है, या पुरुष-नपुसक ( कृत्रिम नपुसक-) वेदी होता है ? / |23-2 उ.] गौतम ! वह स्त्रीवेदी नहीं होता, पुरुषवेदी होता है, नपुसकवेदी नहीं होता, किन्तु पुरुष-नपु सकवेदी होता है / 24. [1] से णं भंते ! कि सकसाई होज्जा, अकसाई होज्जा ? गोयमा ! सकसाई होज्जा, नो अकसाई होज्जा। {24-1 प्र.] भगवन् ! क्या वह (अवधिज्ञानी) सकषायी होता है, अथवा अकषायी होता है ? {24.1 उ.] गौतम ! वह सकषायी होता है, अकषायी नहीं होता। [2] जइ सकसाई होज्जा, से णं भंते ! कतिसु कसाएसु होज्जा ? गोयमा ! चउसु संजलणकोह-माण-माया-लोभेसु होज्जा। [24-2 प्र.! भगवन् ! यदि वह सकषायी होता है, तो वह कितने कषायों वाला होता है ? [24-2 उ.] गौतम ! वह संज्वलन क्रोध, माल, माया और लोभ ; इन चार कषायों से युक्त होता है। 25. [1] तस्स गं भंते ! केवतिया अज्झवसाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! असंखेज्जा अज्झवसाणा यण्णत्ता। [25-1 प्र.] भगवन् ! उसके कितने अध्यवसाय होते हैं ? [25-1 उ.] गौतम ! उसके असंख्यात अध्यवसाय होते है। [2] ते णं भंते ! कि पसत्था अप्पसत्था ? गोयमा ! पसत्था, नो अप्पसत्था। [25-2 प्र.] भगवन् ! उसके वे अध्यवसाय प्रशस्त होते हैं या अप्रशस्त ? [25-2 उ.] गौतम ! वे प्रशस्त होते हैं, अप्रशस्त नहीं होते। विवेचन- अवधिज्ञानी के सम्बन्ध में प्रश्न-ये प्रश्न जो लेश्या, ज्ञान, योग, उपयोग आदि के सम्बन्ध में किये गए हैं, वे उसके सम्बन्ध में किये गए हैं जो पहले विभंगज्ञानी था, किन्तु पूर्वोक्त प्रक्रियापूर्वक शुद्ध अध्यवसाय एवं शुद्ध परिणाम के कारण सम्यक्त्व प्राप्त करके अवधिज्ञानो हुआ और श्रमणधर्म में दीक्षित होकर चारित्र ग्रहण कर चुका है / " 'तिसु विसुद्धलेसासु होज्ज'–प्रशस्त भावलेश्या होने पर ही सम्यक्त्वादि प्राप्त होते हैं, अप्रशस्त लेश्याओं में नहीं।। तिसु..." णाणेसु होज्ज-विभंगज्ञानी को सम्यक्त्व प्राप्त होते ही उसके मति-प्रज्ञान, श्रुत-अज्ञान और विभगज्ञान, ये तोनों अज्ञान, (मति-श्रुतावधि-) ज्ञानरूप में परिणत हो जाते हैं। 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 435 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org