________________ अष्टम शतक : उद्देशक-४ ] [301 रखना) तथा 2. निर्वर्तनाधिकरणिकी (नये अस्त्र-शस्त्रादि बनाना) / प्राषिको-(स्वयं का, दूसरों का, उभय का अशुभ-द्वेषयुक्त चिन्तन करना), पारितापनिको (स्व, पर और उभय को परिताप उत्पन्न करना) और प्राणातिपातिकी (अपने पापके, दूसरों के या उभय के प्राणों का नाश करना)। कायिकी आदि पांच-पांच करके पच्चीस क्रियाओं का वर्णन भी मिलता है। इसके अतिरिक्त इन पांचों क्रियाओं का अल्प-बहुत्व भी विस्तृत रूप से प्रज्ञापना में प्रतिपादित किया गया है।" // अष्टम शतक : चतुर्थ उद्देशक समाप्त / 1. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 367 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचनयुक्त) भा. 3, पृ. 1374 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org