________________ चउत्थो उद्देसओ : किरिया चतुर्थ उद्देशक : क्रिया' क्रियाएँ और उनसे सम्बन्धित भेद-प्रभेदों आदि का निर्देश 1. रायगिहे जाव एवं वदासी[१ उद्देशक का उपोद्घात राजगृह नगर में यावत् गौतमस्वामी ने इस प्रकार पूछा२. कति णं भंते ! किरियानो पण्णत्तानो ? गोयमा! पंच किरियानो पण्णत्तामो, तं जहा—काइया अहिगरणिया, एवं किरियापदं निरवसेसं भाणियव्यं जाव मायावत्तियानो किरियानो विसेसाहियारो। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति भगवं गोयमे० / / / अट्ठमसए : चउत्थो उद्देसश्रो समत्तो॥ [2 प्र.] भगवन् ! क्रियाएँ कितनी कही गई हैं ? [2 उ.] गौतम ! क्रियाएँ पांच कही गई हैं / वे इस प्रकार (1) कायिकी, (2) प्राधिकरणिकी, (3) प्राषिकी, (4) पारितापनिको और (5) प्राणातिपातिकी। यहाँ प्रज्ञापनासूत्र का (बाईसवाँ) समग्र क्रियापद कहना चाहिए; यावत् 'मायाप्रत्ययिकी क्रियाएँ विशेषाधिक हैं;'- यहाँ तक कहना चाहिए / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है'; यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरण करने लगे। विवेचन-क्रियाएँ और उनसे सम्बन्धित भेद-प्रभेदों प्रादि का निर्देश प्रस्तुत उद्देशक के सूत्रद्वय में मुख्य क्रियाओं और उनसे सम्बन्धित भेद-प्रभेद एवं अल्पबहुत्व का प्रज्ञापनासूत्र के अतिदेशपूर्वक निर्देश किया गया है / क्रिया की परिभाषा-कर्मबन्ध की कारणभूत चेष्टा को अथवा दुर्व्यापारविशेष को जैन. दर्शन में क्रिया कहा गया है। कायिकी प्रादि क्रियानों का स्वरूप और प्रकार--कायिकी के दो प्रकार-१. अनुपरतकायिकी (हिंसादि सावद्ययोग से देशतः या सर्वत: अनिवृत्त-अविरत जीवों को लगने वाली), और 2. दुष्प्रयुक्तकायिकी..कायादि के दुष्प्रयोग से प्रमत्तसंयत को लगने वाली क्रिया)। प्राधिक 1. संयोजनाधिकरणिको (पहले से बने हुए अस्त्र-शस्त्रादि हिंसा के साधनों को एकत्रित कर तैयार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org