________________ अष्टम शतक : उद्देशक-३ } 1299 .. विवेचन–रत्नप्रभादि पृथ्वियों के चरमत्व-अचरमत्व का निरूपण-प्रस्तुत सूत्रद्वय (सू. 7-8) में दो तथ्यों का निरूपण किया गया है-आठ पृथ्वियों का और रत्नप्रभादि पृध्वियों के चरमत्वअचरमत्व का। चरम-अचरम-परिभाषा-चरम का अर्थ यहाँ प्रान्त या पर्यन्तवर्ती (अन्तिम सिरे पर रहा हुया) है / यह अन्तर्वार्तत्व अन्य द्रव्य की अपेक्षा से समझना चाहिए। जैसे--पूर्वशरीर की अपेक्षा से चरमशरीर कहा जाता है / अचरम का अर्थ है-अप्रान्त यानी मध्यवर्ती / यह भी आपेक्षिक है / जैसे कि कहा जाता है—अन्यद्रव्य की अपेक्षा यह अचरम द्रव्य है अथवा अन्तिम शरीर की अपेक्षा यह मध्य शरीर है।' चरमादि छह प्रश्नोत्तरों का प्राशय-प्रज्ञापनासूत्र में रत्नप्रभापृथ्वी के सम्बन्ध में 6 प्रश्न और उनके उत्तर प्रस्तुत किये गए हैं। यथा--रत्नप्रभापृथ्वी चरम है, अचरम है, (एकवचन को अपेक्षा से) चरम हैं या अचरम हैं (बहुवचन की अपेक्षा से) अथवा चरमान्त प्रदेश हैं, या अचरमान्त प्रदेश हैं ? इसके उत्तर में कहा गया है-रत्नप्रभापृथ्वी न तो चरम है, न अचरम है, न वे (पृथ्वियाँ) चरम हैं, और न अचरम हैं, न ही चरमान्तप्रदेश (उसका भूभाग प्रान्तवर्ती) है, न ही अचरमान्तप्रदेश है / रत्नप्रभा में चरमत्व (एकवचन-बहुवचन दोनों दृष्टियों से) इसलिए घटित नहीं हो सकता कि चरमत्व आपेक्षिक है, अन्यापेक्ष है और अन्य पृथ्वी का वहाँ अभाव होने से रत्नप्रभा चरम नहीं है। और अचरमत्व भी उसमें तब घटित हो, जब बीच में कोई दूसरी पृथ्वी हो, वह भी नहीं है / इसलिए रत्नप्रभा अचरम भी नहीं है / रत्नप्रभापृथ्वी असंख्यात प्रदेशावगाढ़ है किन्तु पास में या मध्य में दूसरी पृथ्वी के प्रदेश न होने से वह न तो चरमान्तप्रदेश है और न अचरमान्त / 2 / / अष्टम शतकः तृतीय उद्देशक समाप्त / / 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्रांक 365 2. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 366, (ख) प्रज्ञापना. पद 10, (म. विद्या.) सू.७७४-८२९, पृ. 193-208 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org