________________ तृतीय शतक : उद्दशक-२ | 317 30. तते णं से चमरे असुरिंदे असुरराया तं जलंतं जाव भयकरं वज्जमभिमहं प्रावयमाणं पासइ, पासित्ता झियाति पिहाइ, पिहाइ झियाइ, झियायित्ता पिहायित्ता तहेव संभग्गमउडविडवे सालंबहत्थाभरणे उड्ढे पाए अहोसिरे कक्खागयसेयं पिव विणिम्मुयमाणे 2 ताए उक्किट्ठाए जाव तिरियमसंखेज्जाणं दोव-समुद्दाणं मज्झमझेगं वीतोक्यमाणे 2 जेणेव जंबद्दीवे दोवे जाव जेणेव असोगवरपायवे जेणेव गमं अंतिए तेणेव उवागच्छइ, 2 ता भीए भयगग्गरसरे ‘भगवं सरणं' इति बुयमाणे ममं दोण्ह वि पायाण अंतरंसि झत्ति वेगेणं समोवतिते / [30] तत्पश्चात् उस असुरेन्द्र असुरराज चमर ने जब उस जाज्वल्यमान, यावत् भयंकर वज्र को अपने सामने आता हुआ देखा, तब उसे देख कर ('यह क्या है ?" इस प्रकार मन में) चिन्तन करने लगा, फिर (अपने स्थान पर चले जाने की) इच्छा करने लगा, अथवा (वज्र को देखते ही उसने) अपनी दोनों आँखें मूंद ली और (वहाँ से चले जाने का पुनः) पुनः विचार करने लगा। (कुछ क्षणों तक) चिन्तन करके वह ज्यों ही स्पृहा करने लगा (कि ऐसा अस्त्र मेरे पास होता तो कितना अच्छा होता / ) त्यों ही उसके मुकुट का तुर्रा (छोगा) टूट गया, हाथों के आभूषण (भय के मारे शरीर सूख जाने से) नीचे लटक गए; तथा पैर ऊपर और सिर नीचा करके एवं कांखों में पसीना-सा टपकाता हुआ, वह असुरेन्द चमर उस उत्कृष्ट यावत् दिव्य देवगति से तिरछे असंख्य द्वीप समुद्रों के बीचोंबीच होता हुआ, जहाँ जम्बूद्वीप नामक द्वीप था, जहाँ भारतवर्ष था, यावत् जहाँ श्रेष्ठ अशोकवृक्ष था, वहाँ पृथ्वीशिलापट्टक पर जहाँ मैं (श्री महावीरस्वामी) था, वहाँ आया / मेरे निकट प्राकर भयभीत एवं भय से गद्गद स्वरयुक्त चमरेन्द्र-"भगवन् ! आप ही (अब) मेरे लिए शरण हैं" इस प्रकार बोलता हुआ मेरे दोनों पैरों के बीच में शीघ्रता से वेगपूर्वक (फुर्ती से) गिर पड़ा। 31. तए णं तस्स सक्कस्स विदस्स देवरणो इमेयारूबे अज्झथिए जाच समुप्पज्जित्था 'नो खलु पभू चमरे असुरिदे असुरराया, नो खलु समत्थे चमरे प्रसुरिंदे असुरराया, नो खलु विसए चमरस्स असुरिदस्स असुररणो अपणो निस्साए उड्ढं उप्पतित्ता जाव सोहम्मो कप्पो, गन्नत्थ प्ररहते वा, अरहंतचेइयाणि वा, अणगारे वा भावियप्पागो नीसाए उड्ढं उप्पयति जाव सोहम्मो कप्पो / तं महादुक्खं खलु तहारूवाणं अरहंताणं भगवंताणं अणगाराण य अच्चासायणाएं त्ति कटु प्रोहिं पजु जति, 2 ममं ओहिणा प्राभोएति, 2 'हा! हा! अहो ! हतो प्रहमंसि' ति कटु ताए उक्किट्ठाए जाव दिवाए देवगतीए वज्जस्स वीहि अणुगच्छमाणे 2 तिरियमसंखेज्जाणं दीव-समुद्दाणं मझमझेणं जाव जेणेब असोगवरपादवे जेणेव ममं अंतिए तेणेव उवागच्छइ, 2 ममं चउरंगुलमसंपत्तं वज्ज पडिसाहरइ / अवियाऽऽई मे गोतमा ! मुट्टिवातेणं केसग्गे वोइत्था / [31] उसी समय देवेन्द्र शक्र को इस प्रकार का प्राध्यात्मिक (आन्तरिक अध्यवसाय) यावत् मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ कि असुरेन्द्र असुरराज चमर इतनी शक्तिवाला नहीं है, न असुरेन्द्र असुरराज चमर इतना समर्थ है, और न हो असुरेन्द्र असुरराज चमर का इतना विषय है कि वह अरिहन्त भगवन्तों, अर्हन्त भगवान् के चैत्यों अथवा भावितात्मा अनगार का आश्रय (निश्राय) लिये विना स्वयं अपने प्राश्रय (निश्राय) से इतना ऊँचा (उठ) कर यावत् सौधर्मकल्प तक आ सके / अत: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org