________________ 318 / | व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र वह असुरेन्द्र अवश्य अरहिन्त भगवन्तों यावत् अथवा किसी भावितात्मा अनगार के आश्रय (निश्राय) से ही इतना ऊपर यावत् सौधर्मकल्प तक पाया है / यदि ऐसा है तो उन तथारूप अर्हन्त भगवन्तों एवं अनगारों की (मेरे द्वारा फेंके हुए वज्र से) अत्यन्त पाशातना होने से मुझे महा:दुख होगा। ऐसा विचार करके शकेन्द्र ने अवधिज्ञान का प्रयोग किया और उस अवधिज्ञान के प्रयोग से उसने मुझे (श्री महावीर स्वामी को) देखा ! मुझे देखते ही (उसके मुख से बरबस ये उद्गार निकल पड़े-) "हा ! हा! अरे रे ! मैं मारा गया !" इस प्रकार (पश्चात्ताप) करके (वह शक्रन्द्र अपने वन को पकड़ लेने के लिए) उत्कृष्ट यावत् दिव्य देवगति से वज्र के पीछे-पीछे दौड़ा। वज्र का पीछा करता हुया वह शकेन्द्र तिरछे असंख्यात द्वीप-समुद्रों के बीचोंबीच होता हुअा यावत् उस श्रेष्ठ अशोकवृक्ष के नीचे जहाँ मैं था, वहाँ आया) और वहाँ मुझ से सिर्फ चार अंगुल दूर रहे हुए (असम्प्राप्त) उस वज्र को उसने पकड़ लिया (वापिस ले लिया)। हे गौतम ! (जिस समय शकेन्द्र ने वज्र को पकड़ा, उस समय उसने अपनी मुट्ठी इतनी जोर से बन्द की कि) उस मुट्ठी की हवा से मेरे केशान हिलने लगे। 32. तए णं से सक्के देविंद देवराया वज्जं पड़िसाहरति, पडिसाहरित्ता ममं तिक्खुत्तो आदाहिणपदाहिणं करेइ, 2 वंदइ नमसइ, 2 एवं वयासी-एवं खलु भंते ! अहं तुम्भं नीसाए चमरेणं प्रसुरिंदणं असुररणा सयमेव प्रच्चासाइए। तए णं मए परिकुविएणं समाणेणं चमरस्त असुरिंदस्स असुररण्णो वहाए वज्जे निस? / तए णं मे इमेयारूवे प्रज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था-नो खलु पभू चमरे असुरिद असुरराया तहेव जाव प्रोहि पउंजामि, देवाणुप्पिए प्रोहिणा प्राभोएमि, 'हा ! हा ! अहो ! हतो मो' ति कटु ताए उक्किट्ठाए जाव जेणेव देवाणुप्पिए तेणेव उवागच्छामि, देवाणुप्पियाणं चउरंगुलमसंपत्तं वज्जं पडिसाहरामि, वज्जपडिसाहरणट्ठताए णं इहमागए, इह समोसढे, इह संपत्ते, इहेव अज्ज उवसंपज्जित्ताणं विहरामि / तं खामेमि णं देवाणुप्पिया !, खमंतु णं देवाणुप्पिया!, खमितुमरहंति णं देवाणुप्पिया!, णाइ भुज्जो एवं पकरणताए" ति कट्ठ मम वंदइ नमसइ, 2 उत्तरपुरस्थिमं दिसौभागं प्रवक्कमइ, 2 वामेणं पादणं तिक्खुत्तो भूमि दलेइ, 2 चमरं असुरिंद असुररायं एवं वदासी-'मुक्को सि णं मो! चमरा ! असुरिंदा! असुरराया! समणस्स भगवनो महावीरस्स पभावेणं, नहि ते दाणि ममानो भयमस्थि' त्ति कटु जामेव दिसि पाउन्भए तामेव दिसि पडिगए। [32] तदनन्तर देवेन्द्र देवराज शक्र ने वन को ले कर दाहिनी ओर से मेरी तीन बार प्रदक्षिणा की और मुझे वन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके कहा-भगवन् ! आपका ही आश्रय ले कर स्वयं असुरेन्द्र असुरराज चमर मुझे अपनी श्री से भ्रष्ट करने आया था। तब मैंने परिकुपित हो कर उस असुरेन्द्र असुरराज चमर के वध के लिए वज्र फेंका था। इसके पश्चात् मुझे तत्काल इस प्रकार का प्रान्तरिक यावत् मनोगत विचार उत्पन्न हुया कि असुरेन्द्र असुरराज चमर स्वयं इतना समर्थ नहीं है कि अपने ही आश्रय से इतना ऊँचा-सौधर्मकल्प तक आ सके, इत्यादि पूर्वोक्त सब बातें शकेन्द्र ने कह सुनाईं यावत् शकेन्द्र ने आगे कहा-भगवन् ! फिर मैंने अवधिज्ञान का प्रयोग किया / अवधिज्ञान के द्वारा आपको देखा। आपको देखते हो-हा हा ! अरे रे ! मैं मारा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org