________________ 316 | व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र को भगाता हुआ, परिधरत्न को आकाश में घुमाता हुआ, उसे विशेष रूप से चमकाता हुआ, उस उत्कृष्ट दिव्य देवगति से यावत् तिरछे असंख्येय द्वीपसमुद्रों के बीचोंबीच हो कर निकला। यों निकल कर जिस अोर सौधर्मकल्प (देवलोक) था, सौधर्मावतंसक विमान था, और जहाँ सुधर्मासभा थी, उसके निकट पहुँचा / वहाँ पहुँच कर उसने एक पैर पद्मवरवेदिका पर रखा, और दूसरा पैर सुधर्मा सभा में रखा / फिर बड़े जोर से हुंकार (आवाज) करके उसने परिघरत्न से तीन बार इन्द्रकील (शक्रध्वज अथवा मुख्य द्वार के दोनों कपाटों के अर्गलास्थान) को पीटा (प्रताडित किया) / तत्पश्चात् उसने (जोर से चिल्ला कर) इस प्रकार कहा–'अरे ! वह देवेन्द्र देवराज शक्र कहाँ है ? कहां हैं उसके वे चौरासी हजार सामानिक देव ? यावत् कहाँ है उसके वे तीन लाख छत्तीस हजार प्रात्मरक्षक देव ? कहाँ गई वे अनेक करोड़ अप्सराएँ ? आज ही मैं उन सबको मार डालता हूँ, आज ही उनका मैं वध कर डालता हूँ। जो अप्सराएँ मेरे अधीन नहीं हैं, वे अभी मेरी वशतिनी हो जाएँ।' ऐसा करके चमरेन्द्र ने वे अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अशुभ, अमनोज्ञ, अमनोहर और कठोर उद्गार निकाले / 26. तए णं से सक्के देविद देवराया तं अणि जाव प्रमणामं अस्सुयपुव्वं फरुसं गिरं सोच्चा निसम्म आसुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे तिवलियं मिडि निडाले साहटु चमरं असुरिद असुररायं एवं वदासी-हं भो! चमरा ! असुरिदा ! असुरराया! अपत्थियपत्थया! जाव होणपुण्णचाउद्दसा ! अज्ज न भवसि, नहि ते सुहमत्यि' त्ति कटु तत्थेव सोहासणवरगते वज्ज परामुसइ, 2 तं जलंतं फुतं तउतउतं उक्कासहस्साई विणिमयमाणं 2, जालासहस्साई पमुचमाण 2, इंगालसहस्साई पविविखरमाणं 2, फुलिंगजालामालासहस्से हि चक्खुविषखेव-दिटिपडिधातं पि पकरेमाणं हुतवहअतिरेगतेयदिपंतं जइणवेगं फुल्लाकसुयसमाणं महब्भयं भयकर चमरस्स असुरिदस्स असुररणो वहाए वज्जं निसिरइ। [29] तदनन्तर (चम रेन्द्र द्वारा पूर्वोक्त रूप से उत्पात मचाये जाने पर) देवेन्द्र देवराज शक (चमरेन्द्र के) इस (उपर्युक्त) अनिष्ट, यावत् अमनोज्ञ और अश्रुतपूर्व (पहले कभी न सुने हुए) कर्णकटु वचन सुन-समझ करके एकदम (तत्काल) कोपायमान हो गया। यावत् क्रोध से (होठों को चबाता हुआ) बड़बड़ाने लगा तथा ललाट पर तीन सल (रेखाएँ) पड़ें, इस प्रकार से भुकृटि चढ़ा कर शक्रेन्द्र असुरेन्द्र असुरराज चमर से यों बोला-हे ! भो (अरे ! ) अप्रार्थित (अनिष्ट-मरण) के प्रार्थक (इच्छुक) ! यावत् हीनपुण्या (अपूर्ण) चतुर्दशी के जन्मे हुए असुरेन्द्र ! असुरराज ! चमर ! आज तू नहीं रहेगा; (तेरा अस्तित्व समाप्त हो जाएगा) आज तेरी खैर (सुख) नहीं है / (यह समझ ले) यों कह कर अपने श्रेष्ठ सिंहासन पर बैठे-बैठे ही शकेन्द्र ने अपना वज़ उठाया और उस जाज्वल्यमान, विस्फोट करते हुए, तड़-तड़ शब्द करते हुए हजारों उल्काएँ छोड़ते हुए, हजारों अग्निज्वालाओं को छोड़ते हुए, हजारों अंगारों को बिखेरते हुए, हजारों स्फुलिंगों (चिनगारियों) की ज्वालानों से उस पर दृष्टि फैकले ही आँखों के आगे चकाचौंध के कारण रुकावट डालने वाले, अग्नि से अधिक तेज से देदीप्यमान, अत्यन्त वेगवान् खिले हुए टेसू (किंशुक) के फूल के समान लाल-लाल, महाभयावह एवं भयंकर वज्र को असुरेन्द्र असुरराज चमरेन्द्र के वध के लिए छोड़ा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org