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________________ तृतीय शतक : उद्देशक-२ | [ 315 करने के लिए) अवधिज्ञान का प्रयोग किया। अवधिज्ञान के प्रयोग से उसने मुझे (श्री महावीर स्वामी को) देखा / मुझे देख कर चमरेन्द्र को इस प्रकार आध्यात्मिक (प्रान्तरिक स्फुरणा) यावत् मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ कि श्रमण भगवान् महावीर जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, भारतवर्ष में, सुसुमारपुर नगर में, अशोकवनषण्ड नामक उद्यान में, श्रेष्ठ अशोकवृक्ष के नीचे पृथ्वीशिलापट्टक पर अट्ठमभत्त (तेले का) तप स्वीकार कर एकरात्रिको महाप्रतिमा अंगीकार करके स्थित हैं। अत: मेरे लिए यह श्रेयस्कर होगा कि मैं श्रमण भगवान् महावीर के निश्राय-आश्रय से देवेन्द्र देवराज शक्र को स्वयमेव (एकाकी ही) अत्याशादित (श्रीभ्रष्ट) करूं।' इस प्रकार (भलीभांति योजनाबद्ध) विचार करके वह चमरेन्द्र अपनी शय्या से उठा और उठकर उसने देवदूष्य वस्त्र पहना। फिर, उपपातसभा के पूर्वीद्वार से होकर निकला / और जहाँ सुधर्मासभा थी, तथा जहाँ चतुष्पाल (चौप्पाल) नामक शस्त्रभण्डार (प्रहरणकोष) था, वहाँ आया / शस्त्रभण्डार में से उसने एक परिघरत्न उठाया। फिर वह किसी को साथ लिये बिना अकेला ही उस परिघरत्न को लेकर अत्यन्त रोषाविष्ट होता हुआ चमरचंचा राजधानी के बीचोंबीच होकर निकला और ति गिच्छकट नामक उत्पातपर्वत के निकट आया / वहाँ उसने वैक्रिय समुद्घात द्वारा समवहत होकर संख्येय योजनपर्यन्त का उत्तरवैक्रियरूप बनाया। फिर वह उस उत्कृष्ट यावत् दिव्य देवगति से यावत् जहाँ पृथ्वीशिलापट्टक था, वहाँ मेरे (भगवान् श्रीमहावीर स्वामी के) पास आया। मेरे पास उसने दाहिनी ओर से मेरी तीन बार प्रदक्षिणा की, मुझे वन्दन-नमस्कार किया और तब यों बोला--"भगवन् ! मैं आपके निश्राय (प्राश्रय) से स्वयमेव (अकेला ही) देवेन्द्र देवराज शक्र को उसकी शोभा से भ्रष्ट करना चाहता हूँ।" __ इस प्रकार कह कर (मेरे उत्तर की अपेक्षा रखे बिना ही) वह वहाँ से (सीधा) उत्तरपूर्वदिशाविभाग (ईशानकोण) में चला गया। फिर उसने वैक्रियसमुद्घात किया; यावत् वह दूसरी बार भी वैक्रियसमुद्घात से समवहत हुआ / (इस बार) वैक्रिय समुद्घात से समवहत होकर उसने एक महाधोर, घोराकृतियुक्त, भयंकर, भयंकर आकार वाला, भास्वर, भयानक, गम्भीर, त्रासदायक, काली कृष्णपक्षीय अर्धरात्रि एवं काले उड़दों की राशि के समान काला, एक लाख योजन का ऊँचा, महाकाय शरीर बनाया / ऐसा करके वह (चमरेन्द्र) अपने हाथों को पछाड़ने लगा, पैर पछाड़ने लगा, (मेघ की तरह) गर्जना करने लगा, घोड़े की तरह हिनहिनाने (हेषारव करने) लगा, हाथी की तरह किलकिलाहट (चीत्कार) करने लगा, रथ की तरह घनघनाहट करने लगा, पैरों को जमीन पर जोर से पटकने लगा, भूमि पर जोर से (हथेलों से) थप्पड़ मारने लगा, सिहनाद करने लगा, उछलने लगा, पछाड मारने लगा. (मल्ल की तरह मैदान में) त्रिपदी को छेदने लगा: बांई भुजा ऊँची करने लगा, फिर दाहिने हाथ की तर्जनी अंगुली और अंगूठे के नख द्वारा अपने मुख को तिरछा फाड़ कर बिडम्बित (टेढ़ामेढ़ा) करने लगा और बड़े जोर-जोर से कलकल शब्द करने लगा। यों करता हुआ बह चमरेन्द्र स्वयं अकेला, किसी को साथ में न ले कर परिघरत्न ले कर ऊपर आकाश में उड़ा। (उड़ते समय अपनी उड़ान से) बह मानो अधोलोक क्षुब्ध करता हुआ, पृथ्वीतल को मानो कंपाता हुमा, तिरछे लोक को खींचता हुमा-सा, गगनतल को मानो फोड़ता हुआ, कहीं गर्जना करता हुआ, कहीं विद्युत् की तरह चमकता हुआ, कहीं वर्षा के समान बरसता हुआ, कहीं धूल का ढेर उड़ाता (उछालता) हुना, कहीं गाढान्धकार का दृश्य उपस्थित करता हुमा, तथा (जाते-जाते) बाणव्यन्तर देवों को त्रास पहुँचाता हुआ, ज्योतिषीदेवों को दो भागों में विभक्त करता हुआ एवं आत्मरक्षक देवों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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