________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 1] / 655 31. कण्हलेस्सा जाव सुक्कलेस्सा एवं वेव, नवरं जस्स जा लेस्सा अस्थि / [31] कृष्णलेश्यी से लेकर यावत् शुक्ललेश्यी तक के विषय में भी इसी प्रकार जानना .. चाहिए / विशेषता यह है कि जिस जीव के जो लेश्या हो, वही कहनी चाहिए। 32. अलेसे णं जीव-मणुस्स-सिद्ध जहा नोसण्णीनोनसण्णी (सु० 27) / [32] अलेश्यीजीव, मनुष्य और सिद्ध के सम्बन्ध में (सू. 27 में उल्लिखित) नो-संज्ञी-नोअसंज्ञी के समान (प्रथम) कहना चाहिए। विवेचन-(५) लेश्याद्वार–प्रस्तुतद्वार में (सू. 26 से 32 तक) में सलेश्यी, कृष्णलेश्यी से लेकर शुक्ललेश्यी तक तथा अलेश्यी जीव, मनुष्य सिद्ध आदि के विषय में क्रमश: सलेश्यभाव एवं अलेश्यभाव की अपेक्षा से प्रति देशपूर्वक कथन किया गया है। सम्यग्दष्टि, मिथ्यादष्टि एवं मिश्रदृष्टि जीवों के विषय में, एक बहुवचन से सम्यग्दष्टिभावादि की अपेक्षा से प्रथमत्व-अप्रथमत्व निरूपण 33. सम्मदिट्ठीए णं भंते ! जीवे सम्मदिन्ठिभावेणं किं पढमे० पुच्छा। गोयमा ! सिय पढमे, सिय अपढमे / {33 प्र. भगवन् ! सम्यग्दृष्टि जीव, सम्यग्दष्टि भाव की अपेक्षा से प्रथम है या अप्रथम ? (33 उ.] गौतम ! वह कदाचित् प्रथम होता है, और कदाचित् अप्रथम / 34. एवं एगिदियवज्जं जाव बेमाणिए / {34] इसी प्रकार एकेन्द्रियजीवों के सिवाय (नैरयिक से लेकर) यावत् वैमानिक तक समझना चाहिए। 35. सिद्ध पढमे, नो अपढमे / [35] सिद्धजीव प्रथम है, अप्रथम नहीं। 36. पुहत्तिया जीवा पढमा वि, अपढमा वि / [36] बहुवचन से सम्यग्दृष्टि जीव (सम्यग्दृष्टित्व की अपेक्षा से) प्रथम भी हैं, अप्रथम 37. एवं जाव वेमाणिया। [37] इसी प्रकार (बहुवचन सम्बन्धी) यावत् वैमानिक तक कहना चाहिए / 38. सिद्धा पढमा, नो प्रपढमा।। [38] बहुवचन से (सभी) सिद्ध प्रथम हैं, अप्रथम नहीं / 39. मिच्छादिठिए एगल-पुहत्तणं जहा आहारगा (सु० 9-11) / [39] मिथ्यादृष्टिजीव एकवचन और बहुवचन से, मिथ्यादृष्टिभाव की अपेक्षा से (सू. 111 में उल्लिखित) प्राहारक जीवों के समान (अप्रथम कहना चाहिए / ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org