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________________ भेद हैं। बादरवनस्पतिकाय के प्रत्येक और साधारण ये दो भेद हैं। बादर साधारण वनस्पतिकाय निगोद के नाम से भी जानी-पहचानी जाती है। इनमें भी अनन्त जीव होते हैं। इन जीवों में केवल एक इन्द्रिय होती है और वह स्पर्शन इन्द्रिय है। सामान्य रूप से पर्याप्त का अर्थ पूर्ण और अपर्याप्त का अर्थ अपूर्ण है। पर्याप्त और अपर्याप्त ये दोनों शब्द जनदर्शन के पारिभाषिक शब्द हैं। जन्म के प्रारम्भ में जीवनयापन के लिये आवश्यक पोद्गलिक शक्ति के निर्माण का नाम पर्याप्ति है। याहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा और मन ये छह प्रकार की शक्तियाँ हैं / इस शक्ति-विशेष को प्राणी उस समय ग्रहण करता है जब एक स्थल शरीर को छोड़कर दूसरे स्थल शरीर को धारण करता है / पर्याप्तियों का प्रारम्भ एक साथ होता है और पूर्णता ऋमिक रूप से / आहार पर्याप्ति की पूर्णता एक समय में हो जाती है पर शेष पर्याप्तियों के पूर्ण होने में अन्तर्मुहूर्त का समय लगता है। एकेन्द्रिय जीवों में चार पर्याप्तियां होती हैं—ाहार, शरीर, इन्द्रिय और श्वासोच्छवास / विकलेन्द्रिय जीवों के और असंज्ञीपचेन्द्रिय जीवो के पांच पर्याप्तियां होती हैं-ग्राहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास और भाषा / संज्ञीपंचेन्द्रिय जीवों के मन अधिक होने से छह पर्याप्तियां होती हैं / पहली तीन श्राहार, शरीर और इन्द्रिय को प्रत्येक जीव पूर्ण करता है। तीनों पर्याप्तियां पूर्ण करके ही जीव अगले भव का प्रायुध्य बांध सकता है। स्वयोग्य पर्याप्ति जो पूर्ण करे वह पर्याप्त है और जो पूर्ण न करे वह अपर्याप्त है / एकेन्द्रिय जीव के स्वयोग्य पर्याप्तियाँ चार हैं। जो एकेन्द्रिय जीव चार पर्याप्तियों को पूर्ण कर लेता है, वह पर्याप्त बहलाता है और जो पूर्ण नहीं करता वह अपर्याप्त है / पर्याप्त के भी लब्धिपर्याप्त और करणपर्याप्त ये दो भेद हैं। जिस जीव ने स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण नहीं किया है पर जो पूर्ण अवश्य करेगा। दृष्टि से--लब्धिपर्याप्त है और जिस जीव ने स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण कर लिया है वह करण की अपेक्षा से करणपर्याप्त है। करण का अर्थ इन्द्रिय है / जिस जीव ने इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण कर ली है वह करणपर्याप्त है। इस तरह जो लब्धिपर्याप्त है वह करणपर्याप्त होकर ही मृत्यु को प्राप्त करता है। जिस जीव ने स्वयोन्य पर्याप्तियों को पूर्ण नहीं किया है और न करेगा वह लब्ध्यपर्याप्तक है / जिस जीव ने स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूरा नहीं किया है पर करेगा वह करणअपर्याप्त है। यहाँ पर यह स्मरण रखना है—देव और नारक लन्ध्यपर्याप्त नहीं होने पर करण-अपर्याप्त होते हैं। मनुष्य और तियंञ्च जीव दोनों ही प्रकार के अपर्याप्तक होते हैं। विकलेन्द्रियों के द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय ये तीन प्रकार हैं। जिन जीवों के सम्पूर्ण इन्द्रियां नहीं होती हैं वे विकलेन्द्रिय कहलाते हैं। दो इन्द्रिय से लेकर चार इन्द्रिय तक के जीव विकलेन्द्रिय हैं। पंचेन्द्रिय जीव दो प्रकार के है-संज्ञी और असंज्ञी। समनरक को संज्ञी कहा है। यहाँ पर यह प्रश्न सहज ही उदबुद्ध होता है कि समनस्क और संज्ञी इन दोनों शब्दों का एक ही अर्थ है या भिन्न-भिन्न ? उत्तर में निवेदन है-संज्ञी और समनस्क ये दोनों शब्द एक-दूसरे के पर्यायवाची हैं। क्योंकि जो जीव संज्ञी है वह मन वाला अवश्य होगा / आगम साहित्य में संज्ञी शब्द का प्रयोग अधिक मात्रा में हमा है तो दार्शनिक साहित्य में समनरक शब्द का। जब दोनों शब्दों का एक ही अर्थ है तो दार्शनिकों ने समनस्क शब्द का व्यवहार क्यों किया है ? हमारी शष्टि से संज्ञा शब्द अनेक अर्थों को व्यक्त करता है / संज्ञा का सामान्य अर्थ है---चेतना या ज्ञान / चेतना और ज्ञान ये दोनों एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीवों में भी हैं। पर वे संज्ञी नहीं हैं। पर यहाँ पर संज्ञी से ज्ञानसंज्ञा वाले जीवों को ग्रहण नहीं किया है / अनुभवसंज्ञा के भी पाहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथनसंज्ञा, परिग्रहसंज्ञा ये चार प्रकार हैं। आहारसंज्ञा वेदनीयकर्म का उदय है और शेष तीनों संज्ञा मोहनीयकर्म के उदय का फल हैं / अनुभवसंज्ञा भी सभी संसारी जीवों में होती है। - [ 87 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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