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________________ छठा शतक : उद्देशक-४] लेकर कदाचित् प्रप्रदेश, कदाचित् सप्रदेश, ये दो-दो भंग होते हैं / इन्हीं 26 दण्डकों में बहुवचन को लेकर विचार करने पर तीन भंग होते हैं (1) उपपातविरहकाल में पूर्वोत्पन्न जीवों की संख्या असंख्यात होने से सभी सप्रदेश होते हैं, अतः वे सव सप्रदेश हैं। (2) पूर्वोत्पन्न नैरयिकों में जब एक नया नैरयिक उत्पन्न होता है, तब उसकी प्रथम समय की उत्पत्ति की अपेक्षा से वह 'अप्रदेश' कहलाता है। इसके सिवाय बाकी नैरयिक जिनकी उत्पत्ति को दो-तीन-चार प्रादि समय हो गए हैं, वे सप्रदेश' कहलाते हैं / तथा (3) एक-दो-तीन आदि नैरयिकजीव एक समय में उत्पन्न भी होते हैं, उसी प्रमाण में मरते भी हैं, इसलिए वे सब 'अप्रदेश' कहलाते हैं, तथा पूर्वोत्पन्न और उत्पद्यमान जीव बहुत होने से वे सब सप्रदेश भी कहलाते हैं। इसीलिए मूलपाठ में नैरयिकों के क्रमशः तीन भंगों का संकेत है। पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रियजीवों में दो भंग होते हैं-वे कदाचित् सप्रदेश भी होते हैं, और कदाचित अप्रदेश भी। द्वीन्द्रियों से लेकर सिद्धपर्यन्त पूर्ववत् (नैरयिकों की तरह) तीन-तीन भंग होते हैं / 2. आहारकद्वार-पाहारक और अनाहारक शब्दों से विशेषित दोनों प्रकार के जीवों के प्रत्येक के एकवचन ओर बहुवचन को लेकर क्रमश: एक-एक दण्डक यानी दो-दो दण्डक कहने चाहिए / जो जीव विग्रहगति में या केवली समुद्घात में मनाहारक होकर फिर पाहारकत्व को प्राप्त करता है, वह आहारककाल के प्रथम समय वाला जीव 'अप्रदेश' और प्रथम समय के अतिरिक्त द्वितीय-तृतीयादि समयवर्ती जीव सप्रदेश कहलाता है। इसीलिए मूलपाठ में कहा गया है-कदाचित् कोई सप्रदेश और कदाचिन् कोई अप्रदेश होता है / इसी प्रकार सभी अादिवाले (शुरु होने वाले) भावों में एकवचन में जान लेना चाहिए / अनादि वाले भावों में तो सभी नियमत: सप्रदेश होते हैं / बहुवचन वाले दण्डक में भी इसी प्रकार-कदाचित् सप्रदेश भी और कदाचित् अप्रदेश भी होते हैं। जैसेआहारकपने में रहे हुए बहुत जीव होने से उनका सप्रदेशत्व है, तथा बहुत-से जीव विग्रहगति के पश्चात प्रथम समय में तुरन्त ही अनाहारक होने से उनका अप्रदेशत्व भी है। इस प्रकार पाहारक जीवों में सप्रदेशत्व और अप्रदेशत्व ये दोनों पाये जाते हैं। इसी प्रकार एकेन्द्रिय (पृथ्वीकायिक - ग्रादि) जीवों के लिए भी कहना चाहिए। सिद्ध अनाहारक होने से उनमें आहारकत्व नहीं होता है / अत: सिद्ध पद और एकेन्द्रिय को छोड़कर नैरयिकादि जीवों में मूलपाठोक्त तीन भंग (1. सभी सप्रदेश, अथवा 2. बहुत सप्रदेश और एक अप्रदेश, अथवा 3. बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश) कहने चाहिए / अनाहारक के भी इसी प्रकार एकवचन-बहुवचन को लेकर दो दण्डक कहने चाहिए / विग्रहगतिसमापन्न जीव, समुद्घातगत केवली, अयोगी केवली और सिद्ध, ये सब अनाहारक होते हैं / ये जब अनाहारकत्व के प्रथम समय में होते हैं तो 'अप्रदेश' और द्वितीयतृतीय आदि समय में होते हैं तो 'सप्रदेश' कहलाते हैं / बहुवचन के दण्डक में जीव और एकेन्द्रिय को नहीं लेना चाहिए, क्योंकि इन दोनों पदों में 'बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश', यह एक ही भंग पाया जाता है; क्योंकि इन दोनों पदों में विग्रहगति-समापन्न अनेक जीव सप्रदेश और अनेक जीव अप्रदेश मिलते हैं। नैरयिकादि तथा द्वीन्द्रिय आदि जीवों में थोड़े जीवों की उत्पत्ति होती है / अतएव 1. एगो व दो व तिण्णि व संखमसंखा च एगसमएम् / उबवज्जते वइया, उब्वटुंता वि एगेव // 2 // -भगवती० प्र० वृत्ति, पत्रांक 261 में उद्धृत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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