________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र उनमें एक-दो आदि अनाहारक होने से छह भंग संभवित होते हैं, जिनका मूलपाठ में उल्लेख है। यहाँ एकवचन की अपेक्षा दो भंग नहीं होते, क्योंकि यहाँ बहुवचन का अधिकार चलता है। सिद्धों में तीन भंग होते हैं, उनमें सप्रदेशपद बहुवचनान्त ही सम्भवित है। 3. भव्यद्वार-भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक, इन दोनों के प्रत्येक के दो-दो दण्डक हैं, जो औधिक (सामान्य) जीव-दण्डक की तरह हैं। इनमें भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक जीव, नियमत: सप्रदेश होता है। क्योंकि भव्यत्व और अभव्यत्व का प्रथम समय कभी नहीं होता। ये दोनों भाव अनादिपारिणामिक हैं / नैरयिक आदि जीव, सप्रदेश भी होता है, अप्रदेश भी / बहुत जीव तो सप्रदेश ही होते हैं / नैरयिक आदि जीवों में तीन भंग होते हैं। एकेन्द्रिय जीवों में 'बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश', यह एक ही भंग होता है / क्योंकि ये बहुत संख्या में ही प्रति समय उत्पन्न होते रहते हैं। यहाँ भव्य और अभव्य के प्रकरण में सिद्धपद नहीं कहना चाहिए, क्योंकि सिद्ध जीव न तो भव्य कहलाते हैं, न अभव्य / वे नोभवसिद्धिक-नोप्रभवसिद्धिक होते हैं। अतः नोभवसिद्धिकनोप्रभवसिद्धिक जीवों में एकवचक और बहुवचन को लेकर दो दण्डक कहने चाहिए। इसमें जीवपद और सिद्धपद, ये दो पद ही कहने चाहिए; क्योंकि नैरयिक आदि जीवों के साथ नोभवसिद्धिकनोअभवसिद्धिक' विशेषण लग नहीं सकता। इस दण्डक के बहुवचन की अपेक्षा तीन भंग मूलपाठ में बताए हैं। 4. संजीद्वार-संज्ञी जीवों के एकवचन और बहुवचन को लेकर दो दण्डक होते हैं / बहुवचन के दण्डक में जीवादि पदों में तीन भंग होते हैं, यथा-(१) जिन संजी जीवों को बहुत-सा समय उत्पन्न हुए हो गया है, वे कालादेश से सप्रदेश हैं (2) उत्पादविरह के बाद जब एक जीव की उत्पत्ति होती है, तब उसको प्रथम समय की अपेक्षा 'बहुत जीव सप्रदेश और एक जीव अप्रदेश' कहा जाता है, और (3) जब बहुत जीवों की उत्पत्ति एक ही समय में होती है, तब 'बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश' यों कहा जाता है / इस प्रकार ये तीन भंग सभी पदों में जान लेने चाहिए। किन्तु इन दो दण्डकों में एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और सिद्धपद नहीं कहना चाहिए, क्योंकि इनमें 'संज्ञी' विशेषण सम्भव ही नहीं है। असंज्ञीजीवों में एकेन्द्रियपदों को छोड़कर दूसरे दण्डक में ये ही तीन भंग कहने चाहिए / पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रियों में सदा बहुत जीवों की उत्पत्ति होती है, इसलिए उन पदों में 'बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश', यह एक ही भंग सम्भव है / नैरयिकों से ले कर व्यन्तर देवों तक असंज्ञी जीव उत्पन्न होते हैं, वे जब तक संशी न हों, तब तक उनका असंज्ञीपन जानना चाहिए / नैरयिक आदि में असंज्ञीपन कादाचित्क होने से एकत्व एवं बहुत्व की सम्भावना होने के कारण मूलपाठ में 6 भंग बताए गए हैं। संज्ञो प्रकरण में ज्योतिष्क, वैमानिक और सिद्ध का कथन नहीं करना चाहिए, क्योंकि उनमें असंजीपन सम्भव नहीं है। नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी विशेषण वाले जीवों के दो दण्डक कहने चाहिए। उसमें बहवचन को लेकर द्वितीय दण्डक में जीव, मनुष्य और सिद्ध में उपर्युक्त तीन भंग कहने चाहिए, क्योंकि उनमें बहुत-से अवस्थित मिलते हैं। उनमें उत्पद्यमान एकादि सम्भव हैं। नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी के इन दो दण्डकों में जीव, मनुष्य और सिद्ध, ये तीन पद ही कहने चाहिए; क्योंकि नैरयिकादि जीवों के साथ 'नोसंज्ञी-नोप्रसंज्ञी' विशेषण घटित नहीं हो सकता। 5. लेश्याहार–सलेश्य जीवों के दो दण्डकों में जीव और नैरयिकों का कथन औधिक दण्डक के समान करना चाहिए, क्योंकि जीवत्व की तरह सलेश्यत्व भी अनादि है, इसलिए इन दोनों में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org