________________ 480] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र वाले-श. बा. पं. धू. त., श, या. पं. धू. अधः, श. बा. पं. त. अधः, श. बा. धू. त. अधः, ग. पं. धू, त. अधः, इन 5 भंगों को पूर्वोक्त 5 विकल्पों के साथ गुणा करने पर 25 भंग होते हैं। इसी तरह वालुकाप्रभा के बा. पं. धू. त. अधः, इस एक भंग के साथ 5 विकल्पों को गुणा करने पर 5 भंग होते हैं / ये सभी मिलकर 75+25+5= 105 भंग पंचसंयोगी होते हैं / षद संयोगी 7 भंग-६ नैरयिकों का षट्संयोगी एक ही विकल्प होता है, उसके द्वारा सात नरकों के पटसंयोगी 7 भंग होते हैं / इस प्रकार 6 नैरयिक जीवों के असंयोगी 7 भंग, द्विकसंयोगी 105, त्रिकसयोगी 350, चतुष्कसंयोगी 350, पंचसंयोगी 105 ओर षट्संयोगी 7, ये सब मिलकर 624 प्रवेशनक भंग होते हैं। सात नरयिकों के प्रवेशनकभंग 22. सत्त भंते ! नेरइया नेरइयपवेसणएणं पविसमाणा० पुच्छा / गंगेया ! रयणप्पभाए वा होज्जा जाव अहेसत्तमाए वा होज्जा 7 / अहवा एगे रयणप्पभाए, छ सक्करप्पभाए होज्जा / एवं एएणं कमेणं जहा छण्हं दुयासंजोगो तहा सत्ताह वि भाणियन्वं नवरं एगो अब्भहियो संचारिज्जइ / सेसं तं चेव / तियासंजोगो, चउक्कसंजोगो, पंचसंजोगो, छक्कसंजोगो य छण्हं जहा तहा सत्तगह वि भाणियन्वो, नवरं एक्केको अहिओ संचारेयन्वो जाव छक्कगसंजोगो / प्रहवा दो सबकर० एगे वालुय० जाव एगे अहेसत्तमाए होज्जा। अहवा एगे रयण० एगे सक्कर० जाब एगे अहेसत्तमाए होज्जा 1 / 1716 / [22 प्र. भगवन् ! सात नैरयिक जीव, नैयिक-प्रवेशनक द्वारा प्रवेश करते हए क्या रत्नप्रभापृथ्वी में उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [22 उ. गांगेय ! वे सातों नैरयिक रत्नप्रभा में होते हैं, यावत् अथवा अधःसप्तमपृथ्वी में होते हैं / (इस प्रकार असंयोगी 7 भंग होते हैं / ) (द्विकसंयोगी 126 भंग)- अथवा एक रत्नप्रभा में और छह शर्कराप्रभा में होते हैं। इस क्रम से जिस प्रकार छह नैरयिक जीवों के द्विकसंयोगी भंग कहे हैं, उसी प्रकार सात नैरयिक जीवों के भी द्विकसंयोगी भंग कहने चाहिए। इतना विशेष है कि यहाँ एक नैयिक का अधिक संचार करना चाहिए / शेष सभी पूर्ववत् जानना चाहिए। जिस प्रकार छह नैरयिकों के त्रिकसंयोगी, चतुःसंयोगी, पंचसंयोगी और षट्संयोगी भंग कहे, उसी प्रकार सात नैरयिकों के त्रिकसंयोगी आदि भंगों के विषय में भी कहना चाहिए / विशेषता इतनी है कि यहाँ एक-एक नैरयिक जीव का अधिक संचार करना चाहिए / यावत्-पटसंयोगी का अन्तिम भंग इस प्रकार कहना चाहिए--अथवा दो शर्कराप्रभा में, एक बालुकाप्रभा में, यावत् एक अधःसप्तमपृथ्वी में होता है। (यहाँ तक जानना चाहिए / ) 1. (क) वियाहपणत्तिसुत्तं, भा. 1 (मूलपाठ-टिप्पण), पृ. 431-433 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 445 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org