________________ नवम शतक : उद्देशक-३२ ] [401 सप्तसंयोगी एक भंग ----अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में यावत एक अधःसप्तमपृथ्वी में होता है। विवेचन---सात नैरयिकों के असंयोगी 7 भंग-नरक सात हैं, प्रत्येक नरक में सातों नैरयिक प्रवेश करते हैं, इसलिए 7 भंग हुए। द्विकसंयोगी 126 भंग-द्विकसंयोगी 6 विकल्प होते हैं, यथा-१-६, 2-5, 3-4, 4-3, 5-2, 6-1 / इन 6 विकल्पों के साथ रत्नप्रभादि के संयोग से जनित 21 भंगों का गुणाकार करने से 126 भंग द्विकसंयोगी होते हैं / त्रिकसंयोगी 525 भंग-सात नैरयिकों के त्रिकसंयोगी 15 विकल्प होते हैं / यथा-१-१-५. 1-2-4, 2-1-4, 1-3-3, 2-2-3, 3-1-3, 1-4-2, 2-3-2, 3-2-2, 4-1-2, 1-5-1, 2-4-1, 3-3-1,4-2-1 और 5-1-1 / इन 15 विकल्पों को पूर्वोक्त त्रिकसंयोगी 35 विकल्पों के साथ गुणा करने से कुल 525 भंग होते हैं चतुःसंयोगी 700 भंग-चतुःसंयोगी 20 विकल्प होते हैं। यथा-१-१-१-४, 1-1-4-1, 1-4-1.1, 4-1-1-1, 1-1-2-3, 1-1-3-2, 1-3-1-2, 3-1-1-2, 1-2-1-3, 2-1-1-3, 3-2-1-1, 2-3-1-1, 2-2-2-1, 2-1-2-2, 1-2-2-2, 2-2-1-2, 1-2-3-1, 1-3-2-1, 2-1-3-1 और 3-1-2-1 / इन 20 विकल्पों को पूर्वोक्त 35 भंगों के साथ गुणाकार करने पर चतुःसंयोगी कुल 700 भंग होते हैं। पंचसंयोगी 315 भंग-इसके 15 विकल्प होते हैं। यथा-- -1-1-1-1-3, 1-1-1-3-1 इत्यादि / इन 15 विकल्पों को रत्नप्रभादि के संयोग से जनित 21 भंगों के साथ गुणाकार करने पर पंचसंयोगी भंगों की कुल संख्या 315 होती है। . षट्संयोगी 42 भंग--षट्संयोगी विकल्प 6 होते हैं। यथा--१-१-१-१-१-२, 1-1-1-12.1, 1-1-1-2-1-1, 1-1-2-1-1-1, 1-2-1-1-1-1, 2-1-1-1-1-1 / इन 6 विकल्पों के साथ रत्नप्रभादि के संयोग से जनित 7 भंगों का गुणाकार करने पर षट्सयोगी भंगों की कुल संख्या 42 होती है। सप्तसंयोगी एक भंग..१-१-१-१-१-१-१ इस प्रकार सप्तसंयोगी एक हो भंग होता है। इस प्रकार सात नैरपिकों के नरकप्रवेशनक में एकसयोगी 7, द्विकसंयोगी 126, त्रिकसंयोगी 525, चतुष्कसंयोगो 700, पंचसंयोगी 315, षट्संयोगी 42 और सप्तसंयोगी 1; यों कुल मिलाकर 1716 भंग होते हैं।' आठ नरयिकों के प्रवेशनकभंग 23. अट्ट भंते ! नेरतिया नेरइयपवेसणएणं पविसमाणा० पुच्छा। गंगेया ! रयणप्पभाए वा होज्जा जाव अहेसत्तमाए वा होज्जा 7 / 1. (क) विवाहपणत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा 1, पृ. 434-435 (ख) भगवती अ. बत्ति, पत्र 445 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org