________________ 244 ] [ ब्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र (भगवान् --) इस प्रकार छत्र, चर्म, दण्ड, वस्त्र, शस्त्र और मोदक के विषय में भी जानना चाहिए / अर्थात्-समग्न हों, तभी छत्र आदि कहे जाते हैं, इनके खण्ड को छत्र आदि नहीं कहा जाता / इसी कारण से, हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश को, यावत् जब तक उसमें एक प्रदेश भी कम हो, तब तक उसे, धर्मास्तिकाय नहीं कहा जा सकता। 8. [1] से कि खाई णं भते ! 'धम्मस्थिकाए' त्ति वत्तव्य सिया? गोयमा! असंखेज्जा धम्मस्थिकायपदेसा ते सव्वे कसिणा पडिपुण्णा निरवसेसा एगम्गहणगहिया, एस णं गोयमा ! 'धम्मस्थिकाए' त्ति वत्तव्य सिया / [8-1 प्र.] भगवन् ! तब फिर यह कहिए कि धर्मास्तिकाय किसे कहा जा सकता है ? [8-1 उ.] हे गौतम ! धर्मास्तिकाय में असंख्येय प्रदेश हैं, जब वे सब कृत्स्न (पूरे), परिपूर्ण, निरवशेष (एक भी बाकी न रहे) तथा एकग्रहणगृहीत अर्थात्-एक शब्द से कहने योग्य हो जाएँ, तब उस (असंख्येयप्रदेशात्मक सम्पूर्ण द्रव्य) को 'धर्मास्तिकाय' कहा जा सकता है। [2] एवं प्रहम्मस्थिकाए वि। [8.2] इसी प्रकार 'अधर्मास्तिकाय' के विषय में जानना चाहिए। [3] अागासत्यिकाय-जीवस्थिकाय-पोग्गलस्थिकाया वि एवं चेव। नवरं पदेसा प्रगता भाणियव्वा / सेसं तं चेव / [8-3] इसी तरह आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय के विषय में भी जानना चाहिए / विशेष बात यह है कि इन तीनों द्रव्यों के अनन्त प्रदेश कहना चाहिए / बाकी सारा वर्णन पूर्ववत् समझना / विवेचन-धर्मास्तिकायादि के स्वरूप का निश्चय-प्रस्तुत दो सूत्रों में उल्लिखित प्रश्नोत्तरों से यह स्वरूप निर्धारित कर दिया गया है कि धर्मास्तिकायादि के एक खण्ड या एक प्रदेश न्यून को धर्मास्तिकायादि नहीं कहा जा सकता, समग्रप्रदेशात्मक रूप को ही धर्मास्तिकायादि कहा जा सकता है। निश्चयनय का मन्तव्य प्रस्तुत में जो यह बताया गया है कि जब तक एक भी प्रदेश कम हो, तब तक वे धर्मास्तिकाय आदि नहीं कहे जा सकते, किन्तु जब सभी प्रदेश परिपूर्ण हों, तभी वे धर्मास्तिकाय आदि कहे जा सकते हैं / अर्थात् जब वस्तु पूरी हो, तभी वह वस्तु कहलाती है, अधूरी वस्तु, वस्तु नहीं कहलाती; यह निश्चयनय का मन्तव्य है। व्यवहारनय की दृष्टि से तो थोड़ी-सी अधूरी या विकृत वस्तु को भी पूरी वस्तु कहा जाता है, उसी नाम से पुकारा जाता है। व्यवहारनय मोदक के टुकड़े या कुछ न्युन अंश को भी मोदक ही कहता है / जिस कुत्ते के कान कट गए हों, उसे भी कुत्ता ही कहा जाता है। तात्पर्य यह है कि जिस वस्तु का एक भाग विकृत या न्यून हो गया हो, वह वस्तु अन्य वस्तु नहीं हो जाती, अपितु वह वही मूल वस्तु कहलाती है; क्योंकि उसमें उत्पन्न विकृति या न्यूनता मूल वस्तु की पहचान में बाधक नहीं होती। यह व्यवहारनय का मन्तव्य है / जीवास्तिकाय के अनन्तप्रदेशों का कथन समस्त जीवों की अपेक्षा से समझना चाहिए। एक जीव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org