________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-१०] [245 द्रव्य के प्रदेश असंख्यात ही होते हैं। एक पुद्गल के संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्तप्रदेश होते हैं। समस्त पुद्गलास्तिकाय के मिलकर अनन्त (अनन्तानन्त) प्रदेश होते हैं।' उत्थानादियुक्त जीव द्वारा आत्मभाव से जीवभाव का प्रकटीकरण 6. [1] जोवे गं मते ! सउढाणे सकम्मे सबले सवीरिए सपुरिसक्कारपरक्कमे प्रायभावेणं जीवभाव उवदंसेतीति वत्तव्व सिया ? हंता, गोयमा ! जीव णं सट्टाणे जाव उवदंसेतीति बत्तव्य सिया। [9-1 प्र. भगवन ! उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार-पराक्रम वाला जीव आत्मभाव (अपने उत्थानादि परिणामों) से जीवभाव (चैतन्य) को प्रदर्शित---प्रकट करता है; क्या ऐसा कहा जा सकता है ? [9-1 उ.] हाँ, गौतम ! उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार-पराक्रम से युक्त जीव प्रात्मभाव से जीवभाव को उपर्दाशत-प्रकट करता है, ऐसा कहा जा सकता है। [2] से केणठेणं जाव वतन्त्र सिया ? गोयमा ! जोवे गं प्रणतागं आभिणिबोहियनाणपज्जवाणं एवं सुतनाणपज्जवाणं मोहिनाण. पज्जवाणं मणपज्जवनाणपज्जवाणं केवलनाणपज्जवाणं मतिअण्णाणपज्जवाणं सुतअण्णाणपज्जवाणं विभ गणाणपज्जवाणं चक्खुदंसणपज्जवाणं अचक्खुदंसणपज्जवाणं श्रोहिदसणपज्जवाणं केवलदसणपज्जवाणं उपयोग गच्छति, उवयोगलक्खणे णं जीवे / से तेणटलेणं एवं वुच्चइ--गोयमा ! जीवे णं सउट्ठाणे जाव वत्तव सिया। [1-2 प्र. भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा है कि तथारूप जीव आत्मभाव से जीवभाव को प्रदर्शित करता है, ऐसा कहा जा सकता है ? [9-2 उ.] गौतम ! जीव आभिनिबोधिक ज्ञान के अनन्त पर्यायों, श्रतज्ञान के अनन्त पर्यायों, अवधिज्ञान के अनन्त पर्यायों, मनःपर्यवज्ञान के अनन्त पर्यायों एवं केवलज्ञान के अनन्त पर्यायों के तथा मतिप्रज्ञान, श्रुत-अज्ञान, विभंग (अवधि) अज्ञान के अनन्तपर्यायों के, एवं चक्षु-दर्शन, अचक्षु-दर्शन, अवधि-दर्शन और केवलदर्शन के अनन्तपर्यायों के उपयोग को प्राप्त करता है, क्योंकि जीव का लक्षण उपयोग है। इसी कारण से, हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार-पराक्रम बाला जीव, आत्मभाव से जीवभाव (चैतन्य स्वरूप) को प्रदर्शित (प्रकट) करता है। विवेचन-जीव द्वारा आत्मभाव से जीवभाव का प्रकटीकरण-प्रस्तुत सूत्र में उत्थानादि युक्त संसारी जीवों द्वारा किस प्रकार प्रात्मभाव (शयन-गमनादि रूप आत्मपरिणाम) से चैतन्य (जीवत्व-चेतनाशक्ति) प्रकट (प्रदर्शित) की जाती है ? इस शंका का युक्तियुक्त समाधान अंकित किया गया है। 1. भगवतीमूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 149 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org