SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 285
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र उत्थानादि विशेषण संसारी जीव के हैं --मूलपाठ में 'सउठाणे' आदि जो जीव के विशेषण दिए गए हैं, वे संसारी जीवों की अपेक्षा से दिये गए हैं, क्योंकि मुक्त जीवों में उत्थानादि नहीं होते। 'प्रात्मभाव' का अर्थ है-उत्थान (उठना). शयन, गमन, भोजन, भाषण प्रादि रूप प्रात्मपरिणाम / इस प्रकार के प्रात्मपरिणाम द्वारा जीव का जीवत्व (चैतन्य-चेतनाशक्ति प्रकाशित होता है; क्योंकि जब विशिष्ट चेतनाशक्ति होती है, तभी विशिष्ट उत्थानादि होते हैं। पर्यव-पर्याय-प्रज्ञाकृत विभाग या परिच्छेद को पर्यव या पर्याय कहते हैं, प्रत्येक ज्ञान, अज्ञान एवं दर्शन के ऐसे अनन्त-अनन्तपर्याय होते हैं। उत्थान-गयनादि भावों में प्रवर्तमान जीव आभिनिबोधिक आदि ज्ञानसम्बन्धी अनन्तपर्यायरूप एक प्रकार के चैतन्य (उपयोग) को प्राप्त करता है / यही जीवत्व (चैतन्यशक्तिमत्ता) को प्रदर्शित करता है / ' आकाशास्तिकाय के भेद-प्रभेद एवं स्वरूप का निरूपण--- 10. कतिविहे गं मते ! आकासे पण्णते ? गोयमा! दुविहे आगासे पण्णते, तं जहा-लोयाकासे य प्रलोयागासे य / [10 प्र.] भगवन् ! आकाश कितने प्रकार का कहा गया है ? [10 उ.] गौतम! आकाश दो प्रकार का कहा गया है। यथा-लोकाकाश और अलोकाकाश / 11. लोयाकासे गं भंते ! कि जोवा जीवदेसा जोवपदेसा, अजीवा अजीवदेसा प्रजीवपएसा ? गोयमा ! जोवा वि जोवदेसा वि जीवपदेसा वि, अजीवा वि प्रजोवदेसा वि अजीवपदेसा वि / जे जीवा ते नियमा एगिदिया बेइंदिया तेइंदिया चरिंदिया पंचेंदिया अणिदिया। जे जीवदेसा ते नियमा एगिदियदेसा जाव अणिदियदेसा। जे जोवपदेसा ते नियमा एगिदियपदेसा जाव अणिदियपदेसा / जे अजोवा ते दुविहा पण्णता, तं जहा--रूबी य प्ररूवी य / जे रूबीते चाउम्विहा पण्णत्ता, तं जहा-खंधा खंघदेसा खंधपदेसा परमाणु पोग्गला / जे अरूवी ते पंचविहा पण्णता, तं जहाधम्मत्थिकाए, नोधम्मस्थिकायस्स देसे, धम्मत्थिकायस्स पदेसा, अधम्मस्थिकाए, नोप्रधम्मत्थिकायस्स देसे, अधम्मस्थिकायस्स पदेसा, श्रद्धासमए / [11 प्र.] भगवन् ! क्या लोकाकाश में जीव हैं ? जीव के देश हैं ? जीव के प्रदेश हैं ? क्या अजीव हैं ? अजीव के देश हैं ? अजीव के प्रदेश हैं ? [11 उ.] गौतम ! लोकाकाश में जीव भी हैं, जीव के देश भी हैं, जीव के प्रदेश भी हैं; अजीव भी हैं, अजीव के देश भी हैं और अजीव के प्रदेश भी हैं। जो जीव हैं, वे नियमत: (निश्चित रूप से) एकेन्द्रिय हैं, द्वीन्द्रिय हैं, त्रीन्द्रिय हैं, चतुरिन्द्रिय हैं, पंचेन्द्रिय हैं और अनिन्द्रिय हैं / जो जीव के देश हैं, वे नियमतः एकेन्द्रिय के देश हैं, यावत् अनिन्द्रिय के देश हैं। जो जीव के प्रदेश हैं, वे 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 149 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy