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________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-१० ] [ 247 नियमतः एकेन्द्रिय के प्रदेश हैं, यावत् अनिन्द्रिय के प्रदेश हैं। जो अजीव हैं, वे दो प्रकार के कहे गए हैं यथा-रूपी और अरूपी / जो रूपी हैं, वे चार प्रकार के कहे गए हैं-स्कन्ध, स्कन्धदेश, स्कन्ध प्रदेश और परमाणुपुद्गल / जो अरूपी हैं, उनके पांच भेद कहे गए हैं। वे इस प्रकार --धर्मास्तिकाय, नोधर्मास्तिकाय का देश, धर्मास्तिकाय के प्रदेश, अधर्मास्तिकाय, नो अधर्मास्तिकाय का देश, अधर्मास्तिकाय के प्रदेश और श्रद्धासमय है / 12. अलोगागासे णं भंते ! कि जीवा ? पुच्छा तह चेव (सु. 11) / गोयमा! नो जोवा जाव नो अजीवप्पएसा। एगे अजोवदधदेसे अगुरुयलहुए प्रणतेहि अगुरुयलयगुणेहिं संजुत्ते सव्वागासे अणंतभागूणे / [12 प्र.] भगवन् ! क्या अलोकाकाश में जीव हैं, यावत् अजीवप्रदेश हैं ? इत्यादि पूर्ववत् पृच्छा / [12 उ.] गौतम ! अलोकाकाश में न जीव हैं, यावत् न ही अजीवप्रदेश हैं। वह एक अजीवद्रव्य देश है, अगुरुलघु है तथा अनन्त अगुरुलधु-गुणों से संयुक्त है; (क्योंकि लोकाकाश सर्वाकाश का अनन्तवा भाग है, अतः) वह अनन्तभागःकम सर्वाकाशरूप है / विवेचन-आकाशास्तिकाय : भेद-प्रभेद एवं स्वरूप का निरूपण-प्रस्तुत तीन सूत्रों द्वारा आकाशास्तिकाय के भेद-प्रभेद एवं उनमें जीव-अजीव आदि के अस्तित्व के सम्बन्ध में निरूपण किया गया है। देश, प्रदेश-प्रस्तत प्रसंग में देश का अर्थ है—जीव या अजीव के वद्धिकल्पित दो, तीन आदि विभाग : तथा प्रदेश का अर्थ है—जीवदेश या अजीबदेश के बुद्धि कल्पित ऐसे सूक्ष्मतम विभाग, जिनके फिर दो विभाग न हो सकें।। __ जीव-अजीव के देश-प्रदेशों का पृथक कथन क्यों ? - यद्यपि जीव या अजीव कहने से ही क्रमश: जीव तथा अजीव के देश तथा प्रदेशों का ग्रहण हो जाता है, क्योंकि जीव या अजीव के देश व प्रदेश जीव या अजीव से भिन्न नहीं हैं, तथापि इन दोनों (देश और प्रदेश) का पृथक् कथन 'जीवादि पदार्थ प्रदेश-रहित हैं', इस मान्यता का निराकरण करने एवं जीवादि पदार्थ सप्रदेश हैं, इस मान्यता को सूचित करने के लिए किया गया है। __ स्कन्ध, स्कन्धदेश, स्कन्धप्रवेश, परमाणुपुद्गल-परमाणुओं का समूह 'स्कन्ध्र' कहलाता है / स्कन्ध के दो, तीन आदि भागों को स्कन्ध-देश कहते हैं, तथा स्कन्ध के ऐसे सूक्ष्म अंश, जिनके फिर विभाग न हो सकें, उन्हें स्कन्धप्रदेश कहते हैं / 'परमाणु' ऐसे सूक्ष्मतम अंशों को कहते हैं, जो स्कन्धभाव को प्राप्त नहीं हुए-किसी से मिले हुए नहीं--स्वतंत्र हैं। प्ररूपी के दस भेद के बदले पांच भेद ही क्यों ?--अरूपी अजीव के अन्यत्र दस भेद (धर्म, अधर्म, आकाश, इन तीनों के देश और प्रदेश तथा प्रद्धासमय) कहे गए हैं, किन्तु यहाँ पांच ही भेद कहने का कारण यह है कि तीन भेद वाले आकाश को यहाँ आधाररूप माना गया है, इस कारण उसके तीन भेद यहाँ नहीं गिने गए हैं। इन तीन भेदों को निकाल देने पर शेष रहे सात भेद / उनमें भी धर्मास्तिकाय तथा अधर्मास्तिकाय के देश का ग्रहण नहीं किया गया है, क्योंकि सम्पूर्ण लोक की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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