________________ 248 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र पृच्छा होने से यहाँ धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय के स्कन्ध के रूप में पूर्ण का ही ग्रहण किया गया है / इसलिए इन दो भेदों को निकाल देने पर पांच भेद ही शेष रहते हैं। श्रद्धा-समय-अद्धा अर्थात् काल, तद्रूप जो समय, वह अद्धासमय है / अलोकाकाश–में जीवादि कोई पदार्थ नहीं है किन्तु उसे अजीवद्रव्य का एक भाग-रूप कहा गया है, उसका कारण है-आकाश के लोकाकाश और अलोकाकाश, ये दो भाग हैं / इस दृष्टि से अलोकाकाश, आकाश (अजीवद्रव्य) का एक भाग सिद्ध हुआ। अलोकाकाश अगुरुल है, गुरुलधु नहीं। वह स्व-पर-पर्यायरूप अगुरुलघु स्वभाव वाले अनन्तगुणों से युक्त है / अलोकाकाश से लोकाकाश अनन्तभागरूप है। दोनों आकाशों में वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श नहीं होते। लोकाकाश–जहाँ धर्मास्तिकायादि द्रव्यों की वृत्ति-प्रवृत्ति हो वह क्षेत्र लोकाकाश है / ' धर्मास्तिकाय आदि का प्रमाण 13. [1] धम्मत्यिकाए णं भंते ! केमहालए पाणते ? गोयमा ! लोए लोयमेत्ते लोयष्पमाणे लोयफुडे लोयं चेव फुसित्ताणं चिटुइ / [13-1 प्र.] भगवन् ! धर्मास्तिकाय कितना बड़ा कहा गया है ? [13-1 उ.) गौतम ! धर्मास्तिकाय लोकरूप है, लोकमात्र है, लोक-प्रमाण है, लोकस्पृष्ट है और लोक को ही स्पर्श करके रहा हुआ है। [2] एवं अधम्मस्थिकाए, लोयाकासे, जीवस्थिकाए, पोग्गलत्थिकाए। पंच वि एक्कामि लावा। [13-2] इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय, लोकाकाश, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय के सम्बन्ध में भी समझ लेना चाहिए / इन पांचों के सम्बन्ध में एक समान अभिलाप (पाठ) है / विवेचन-धर्मास्तिकाय आदि का प्रमाण-प्रस्तुत सूत्र में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, लोकाकाश, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय, इन पांचों को लोक-प्रमाण, लोकमात्र, लोकस्पृष्ट एवं लोकरूप प्रादि बताया गया है। लोक के जितने प्रदेश हैं, उतने ही धर्मास्तिकाय के प्रदेश हैं। धर्मास्तिकायादि के सब प्रदेश लोकाकाश के साथ स्पृष्ट हैं और धर्मास्तिकायादि अपने समस्त प्रदेशों द्वारा लोक को स्पर्श करके रहे हुए हैं। धर्मास्तिकाय आदि को स्पर्शना 14. अहोलोए गंभंते ! धम्मस्थिकायस्स केवतियं फुसति ? गोयमा ! सातिरेगं अद्ध फुसति / [14 प्र.] भगवन् ! धर्मास्तिकाय के कितने भाग को अधोलोक स्पर्श करता है ? 1. भगवती मूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 150-151 2. भगवती सूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक, 151 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org