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________________ पन्द्रहवां शतक] [507 128. तए णं समणे भगवं महावीरे अमुच्छिए जा३ अगसोववन्ने बिलमिव पन्नगभूएणं अप्पाणेणं तमाहारं सरीरकोटुगंसि पक्खिवइ / तए णं समणस्स भगवतो महावीरस्स तमाहारं आहारियस्स समाणम्स से विपुले रोगायंके खिप्पामेव उवसंते ह8 जाए अरोए बलियसरीरे। तुट्ठा समणा, तुट्ठामो समणोओ, तुट्ठा सायगा, तुट्ठाओ सावियानो, तुट्ठा देवा, तुट्ठाओ देवोनो सदेवमणुया. सुरे लोए तुढे हटे जाए–'समणे भगवं महावोरे ह8, समणे भगवं महावीरे हट्ठ'। 128] तब श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने अमूच्छित (अनासक्त) यावत् लालसारहित (भाव से) बिल में सर्प-प्रवेश के समान उस (औषधरूप) आहार को शरीररूपी कोठे में डाल दिया / वह (औषध रूप) आहार करने के बाद श्रमण भगवान् महावीर स्वामो का वह महापीडाकारी रोगानंक शीघ्र ही शान्त हो गया। वे हृष्टपुष्ट, रोगरहित और शरीर से बलिष्ठ हो गए। इससे सभी श्रमण तुष्ट (प्रसन्न हुए, श्रमणियां तुष्ट हुईं, श्रावक तुष्ट हुए, धाविकाएँ तुष्ट हुई, देव तुष्ट हुए, देवियाँ तुष्ट हुई, और देव, मनुष्य एवं असुरों सहित समग्र लोक तुष्ट एवं हर्षित हो गया। (कहने लगे-) 'श्रमण भगवान् महाबोर हृष्ट हुए, श्रमण भगवान् महावीर हृष्ट हुए। विवेचन-प्रस्तुत प्राउ सूत्रों (सू. 121 से 128 तक) में रेवती गाथापत्नी के यहाँ बने हुए विजौरापाक को सिंह अनगार द्वारा लाने और भगवान के द्वारा उसका सेवन करने से स्वस्थ एवं रोगमुक्त होने का तथा श्रमणादि समग्र लोक के प्रसन्न होने का वृत्तान्त प्रस्तुत किया गया है / __ शंका : समाधान-प्रस्तुत प्रकरण में प्रागत 'दुवे कबोयसरीरा' तथा 'मज्जारकडए कुक्कुडमंसए ये मूलपाठ विवादास्पद हैं। जैन तीर्थंकरों एवं श्रमग-श्रावकवर्ग को मौलिक मर्यादाओं तथा आगमरहस्यों से अनभिज्ञ लोग इस पाठ का मांसपरक अर्थ करके भगवान महावीर पर मांसाहारी का आक्षेप करते हैं। परन्तु यह उनकी भ्रान्ति है। क्योंकि एक तो ऐसा आहार तीर्थकर या साधु वर्ग के लिए तो क्या, सामान्य मार्गानुसारो गृहस्थ के लिए भी हर परिस्थिति में वजित है। दूसरे, खून की दस्तों को बंद करने एवं संग्रहणी रोग तथा वात-पित्तशमन के लिए मांसाहार कथमपि पथ्य नहीं है।' यही कारण है कि इनके अर्थ 'निघण्टु' आदि कोषों में वनस्पति-परक मिलते हैं, वृत्तिकार ने भी वनस्पतिपरक अर्थ से इसकी संगति की है। कवोयसरीरा : दो अर्थ-(१) कपोत 1. (क) भगवती. (प्रमेयचन्द्रिका टीका) भा. 11, पृ. 778 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. ५.पृ. 2469 (ग) नरकगति के 4 कारण के लिए देखो---स्थानांग.स्था. 4 ......."कुणिमाहारेणं / ' 2. (क) पित्तघ्नं तेषु कूष्माण्डम् / -सुश्रुतसंहिता (ख) 'कूष्माण्डं शीतलं वृष्य' –कैयदेवनिघण्टु (ग) 'पारावतं सुमधुरं रुच्यमत्यग्निवातनुत् ।'--सुश्रु तसंहिता (घ) स्थानांग सूत्र, स्थान 9, सु. 3, वृत्ति (ङ) 'वत्युल-पोरग-मज्जार-पोइवल्लीय-पालक्का ।"-प्रजापनापद 1 (च) भगवती. अ. बत्ति, पत्र 691 (छ) रेवतीदानसमालोचना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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