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________________ 14.] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र अपेक्षा सवीर्य भी हैं और अवीर्य भी हैं / जो अशैलेशीप्रतिपन्न हैं, वे लब्धिवीर्य को अपेक्षा अवीर्य हैं, किन्तु करणवीर्य की अपेक्षा सवीर्य भी हैं और अवीर्य भी हैं। इसलिए हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि जीव सवीर्य भी हैं और अवीर्य भी। 11. [1] नेरइया णं भंते ! कि सीरिया ? अवीरिया ? गोयमा ! नेरइया लद्धिवीरिएणं सवीरिया, करणवीरिएणं सवीरिया वि प्रवीरिया वि। से केपट्टणं? गोयमा ! जेसि णं नेरइयाणंअस्थि उटाणे कम्मे बले वीरिए पुरिसक्कारपरक्कमे ते णं नेरइया लद्धिवीरिएण वि सवीरिया, करणवीरिएण वि सबीरिया, जेसि णं नेरइयाणं नस्थि उदाणे जाव परक्कमे ते णं नेर इया लधिवोरिएणं सीरिया, करणवीरिएणं प्रवीरिया / से तेण?ण / [11-1 प्र. भगवन् ! क्या नारक जीव सवीर्य हैं या अवीर्य ? [11-1 प्र.] गौतम ! नारक जीव लब्धिवीर्य की अपेक्षा सवीर्य हैं और करणवीर्य की अपेक्षा सवीर्य भी हैं और अवीर्य भी हैं। [प्र.] भगवन् ! इसका क्या कारण है ? [उ.[ 'गौतम ! जिन नरयिकों में उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकारपराक्रम है, वे नारक लब्धिवीर्य और करणवीर्य, दोनों से सवीर्य हैं, और जो नारक उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार-पराक्रम से रहित हैं, वे लब्धिवीर्य से सवीर्य हैं, किन्तु करणवीर्य से अवीर्य हैं। इसलिए हे गौतम ! इस कारण से पूर्वोक्त कथन किया गया है / [2] जहा नेरइया एवं जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणिया / [11.2] जिस प्रकार नैरयिकों के विषय में कथन किया गया है, उसी प्रकार पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक तक के जीवों के लिए समझना चाहिए। [3] मणुस्सा जहा प्रोहिया जीवा / नवरं सिद्धवज्जा भाणियव्वा / [11-3] मनुष्यों के विषय में सामान्य जीवों के समान समझना चाहिए, विशेषता यह है कि सिद्धों को छोड़ देना चाहिए। [4] दाणमंतर-जोतिस-वेमाणिया जहा नेरइया / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। // पढमसए अटुमो उद्दसो समत्तो। 11.4] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के विषय में नैरयिकों के समान कथन समझना चाहिए। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यह इसी प्रकार है; यों कह कर श्री गौतमस्वामी संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे / ' विवेचन-जीवों के सवीर्यत्व-प्रवीर्यत्व सम्बन्धी प्ररूपण-प्रस्तुत दो सूत्रों में सामान्य जीवों तथा नैरयिक आदि से लेकर वैमानिक तक चौबीस दण्डकों के जीवों के सवीर्य अवीर्य सम्बन्धी निरूपण किया गया है। 1. भगवतीसूत्र प्र. वृत्ति, पत्रांक 95. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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