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________________ प्रथम शतक : उद्देशक-८ ] | 1 उ.] हे गौतम ! जो पुरुष सवीर्य (वीर्यवान् = शक्तिशाली) होता है, वह जीतता है और जो वीर्यहीन होता है, वह हारता है।। [ प्र. भगवन् ! इसका क्या कारण है यावत्-वीर्यहीन हारता है ? / 3. गौतम ! जिसने वीर्य-विधातक कर्म नहीं बांधे हैं, नहीं स्पर्श किये हैं यावत् प्राप्त नहीं किये हैं, और उसके वे कर्म उदय में नहीं आए हैं, परन्तु उपशान्त हैं, वह पुरुष जोतता है / जिसने वीर्य विघातक कर्म बांधे हैं, स्पर्श किये हैं, यावत् उसके वे कर्म उदय में पाए हैं, परन्तु उपशान्त नहीं हैं, वह पुरुष पराजित होता है / अतएव हे गौतम ! इस कारण ऐसा कहा जाता है कि सवीर्य पुरुष वियजी होता है और वीर्यहीन पुरुष पराजित होता है। विवेचन-दो पुरुषों की अनेक बातों में सदशता होते हुए भी जय-पराजय का कारण प्रस्तुत सूत्र में दो पुरुषों की शरीर, वय, चमड़ी तथा शस्त्रादि साधनों में सदृशता होते हुए भी एक की जय और दूसरे की पराजय होने का कारण बताया गया है / वीर्यवान और नि:र्य-वस्तुतः वीर्य से यहाँ तात्पर्य है,-यात्मिक शक्ति, मनोबल, उत्साह, साहस और प्रचण्ड पराक्रम इत्यादि / जिसमें इस प्रकार का प्रचण्ड वीर्य हो, जो वीर्य विघातक-कर्मरहित हो, वह शरीर से दुर्बल होते हुए भी युद्ध में जीत जाता है, इसके विपरीत भीमकाय एवं परिपुष्ट शरीर वाला होते हुए भी जो निर्वीर्य हो, वीर्यविघातककर्मयुक्त हो, वह हार जाता है / ' जीव एवं चौबीस दण्डकों में सबीयत्व-अवार्यत्व की प्ररूपणा जोवा णं भंते ! कि सवीरिया? अवोरिया ? गोयमा ! सवीरिया वि, प्रवीरिया वि / से केपट्टणं? गोयमा! जीवा दुविहा पण्णता; तं जहा--संसारसमावनगा य, प्रसंसारसमावनगा य / तत्य जे ते असंसारसमावन्नगा तेणं सिद्धा, सिद्धा णं अवीरिया। तत्थ णं जे ते संसारसमावन्नगा ते दुविहा पन्नता; तं जहा-सेलेसिपडिवनगा य, असेलेसिपडिवनगा य / तत्थ णं जे ते सेलेसिपडिबन्नगा ते णं लाद्धबोरिएणं सवारिया, करणवोरिएणं अवीरिया। तत्थ णं जे ते असेलेसिपीडिवन्नगा ते णं लद्धि. वोरिएणं सवारिया, करणवीरिएणं सवारिया वि अवीरिया वि / से तेगडेणं गोयमा! एवं बुच्चति जोवा दुविहा पण्णता; तं जहा-सबोरिया वि, अवोरिया वि। [10.1 प्र.] भगवन् ! क्या जीव सवीर्य हैं अथवा अवीर्य हैं ? {10-1 उ.] गौतम ! जीव सवीर्य भी हैं अवीर्य भी है। [10.2 प्र.] भगवन् ! किस कारण से आप ऐसा कहते हैं ? [10-2 उ.] मौतम ! जीव दो प्रकार के हैं-संसारसमापन्नक (संसारी) और असंसारसमापन्नक (सिद्ध)। इनमें जो जीव असंसारसमापन्नक हैं, वे सिद्ध जीव हैं, वे अवीर्य (करण वीर्य से रहित) हैं। इनमें जो जीव संसार-समापन्नक हैं, वे दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा शैलेशोप्रतिपन्न और अशैलेशोप्रतिपन्न / इनमें जो शैलेशीप्रतिपन्न हैं, वे लब्धिवीर्य को अपेक्षा सवीर्य हैं और करणवीर्य की अपेक्षा अवीर्य हैं / जो अशैलेशोप्रतिपन्न हैं वे लब्धिवीर्य को अपेक्षा सवोर्य हैं, किन्तु करणवीर्य की 1. भगवती सूत्र अ. वृत्ति पत्रांक 94 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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