________________ अष्टम शतक : उद्देशक-२ ] [287 व्याप्त है ? इस ज्ञान की सीमा द्रव्यादि की अपेक्षा कितनी है ? यही बताना यहाँ अभीष्ट है / द्रव्य का अर्थ है-धर्मास्तिकाय आदि द्रव्य, क्षेत्र का अर्थ है-द्रव्यों का आधारभूत आकाश, काल का अर्थ है-द्रव्यों के पर्यायों की स्थिति और भाव का अर्थ है-प्रौदयिक आदि भाव अथवा द्रव्य के पर्याय / इनमें से द्रव्य की अपेक्षा आभिनिबोधिक ज्ञानी धर्मास्तिकाय आदि सर्व द्रव्यों को आदेश से-प्रोघरूप (सामान्य रूप) से जानता है, उसका आशय यह है कि वह द्रव्यमात्र सामान्यतया जानता है, उसमें रही हुई सभी विशेषताओं से (विशेषरूप से) नहीं जानता / अथवा आदेश का अर्थ है-- श्रुतज्ञानजनित संस्कार। इनके द्वारा अवाय और धारणा की अपेक्षा जानता है, क्योंकि ये दोनों ज्ञानरूप हैं। तथा अवग्रह और ईहा दर्शनरूप हैं, इसलिए प्रवग्रह और ईहा से देखता है / श्रुतज्ञानजन्य संस्कार से लोकालोकरूप सर्वक्षेत्र को देखता है। काल से सर्वकाल को और भाव से प्रौदयिक आदि पांच भावों को जानता है / (2) श्रुतज्ञानी (सम्पूर्ण दस पूर्वधर प्रादि श्रुतकेवली) उपयोगयुक्त हो कर धर्मास्तिकाय आदि सभी द्रव्यों को विशेषरूप से जानता है, तथा श्रुतानुसारी अचक्षु (मानस) दर्शन द्वारा सभी अभिलाप्य द्रव्यों को देखता है / इसी प्रकार क्षेत्रादि के विषय में भी जानना चाहिए। भाव से उपयोगयुक्त श्रुतज्ञानी औदयिक आदि समस्त भावों को अथवा अभिलाप्य (वक्तव्य) भावों को जानता है / यद्यपि श्रुत द्वारा अभिलाप्य भावों का अनन्तवां भाग ही प्रतिपादित है, तथापि प्रसंगानूप्रसंग से अभिलाप्य भाव श्रुतज्ञान के विषय हैं / इसलिए उनको अपेक्षा 'श्रुतज्ञानी सर्वभावों को (सामान्यतया) जानता है' ऐसा कहा गया है। (3) अवधिज्ञान का विषय-द्रव्य से--अवधिज्ञानी जघन्यत: तेजस और भाषा द्रव्यों के अन्तरालवर्ती सूक्ष्म अनन्त पुद्गलद्रव्यों को जानता है, उत्कृष्टतः बादर और सूक्ष्म सभी पुदगल द्रव्यों को जानता है। अवधिदर्शन से देखता है। क्षेत्र से-अवधिज्ञानी जघन्यतः के असंख्यातवें भाग को जानता-देखता है, उत्कृष्टत: समग्र लोक और लोक-सदश असंख्येय खण्ड अलोक में हों तो उन्हें भी जान-देख सकता है। काल से-अवधिज्ञानी जघन्यत: पावलिका के असंख्यातवें भाग को तथा उत्कृष्टतः असंख्यात उत्सपिणी, अवपिणी अतीत, अनागत काल को जानता और देखता है / यहाँ क्षेत्र और काल को जानने का तात्पर्य यह है कि इतने क्षेत्र और काल में रहे हुए रूपी द्रव्यों को जानता और देखता है / भाव से-अवधिज्ञानी जघन्यतः आधारद्रव्य अनन्त होने से अनन्त भावों को जानता-देखता है, किन्तु प्रत्येक द्रव्य के अनन्त भावों (पर्यायों) को नहीं जानता-देखता। उत्कृष्टत: भी वह अनन्त भावों को जानता-देखता है। वे भाव भी समस्त पर्यायों के अनन्तवें भाग-रूप जानने चाहिए। (4) मनःपर्यवज्ञान का विषय- मनःपर्यवज्ञान प्रकार हैं-ऋजुमति और विपुलमति / सामान्यग्राही मनन-मति या संवेदन के दो को ऋजुमति मनःपर्यायज्ञान कहते हैं / जैसे—'इसने घड़े का चिन्तन किया है, इस प्रकार के अध्यवसाय का कारणभूत (सामान्य कतिपय पर्याय विशिष्ट) मनोद्रव्य का ज्ञान या ऋज-सरलमति वाला ज्ञान / द्रव्य से--ऋजुमतिमनःपर्यायज्ञानी ढाई द्वीप-समुद्रान्तर्वर्ती संज्ञीपंचेन्द्रियपर्याप्तक जीवों द्वारा मनोरूप से परिणमित मनोवर्गणा के अनन्त परमाण्वात्मक (विशिष्ट एक परिणामपरिणत) स्कन्धों को मनःपर्यायज्ञानावरण की क्षयोपशमपटुता के कारण साक्षात् जानता-देखता है / परन्त जीवों द्वारा चिन्तित घटादिरूप पदार्थों को मनःपर्यायज्ञानी प्रत्यक्षतः नहीं जानता किन्त उसके मनोद्रव्य के परिणामों की अन्यथानुपपत्ति से (इस प्रकार के आकार वाला मनोद्रव्य का परिणाम, इस प्रकार के चिन्तन बिना घटित नहीं हो सकता, इस तरह के अन्यथानुपपत्तिरूप अनुमान से) जानता है। इसीलिए यहाँ 'जाणई' के बदले 'पासइ' (देखता है) कहा गया है। विपुल का अर्थ है-अनेक विशेषग्राही / अर्थात्-अनेक विशेषताओं से युक्त मनोद्रव्य के ज्ञान को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org