________________ 288] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसून 'विपुलमतिमनःपर्यायज्ञान' कहते हैं / जैसे- इसने घट का चिन्तन किया है, वह घट द्रव्य से-सोने का बना हुआ है, क्षेत्र से-पाटलिपुत्र का है, काल से-नया है या वसन्त ऋतु का है, और भाव सेबड़ा है, अथवा पीले रंग का है / इस प्रकार की विशेषताओं से युक्त मनोद्रव्यों को विपुलमति जानता है। अर्थात्-ऋजुमति द्वारा देखे हुए स्कन्धों की अपेक्षा विपुलमति अधिकतर, वर्णादि से विस्पष्ट, उज्ज्वलतर और विशुद्धतर रूप से जानता-देखता है। क्षेत्र से-ऋजुमति जघन्यतः अंगुल के असंख्यातवें भाग तथा उत्कृष्टत: मनुष्यलोक में रहे हुए संजीपंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवों के मनोगत भावों को जानता-देखता है; जबकि विपुलमति उससे ढाई अंगुल अधिक क्षेत्र में रहे हुए जीवों के मनोगत भावों को विशेष प्रकार से विशुद्धतर रूप से स्पष्ट रूप से जानता-देखता है। तात्पर्य यह है कि ऋजुमतिमनःपर्यायज्ञानी क्षेत्र से उत्कृष्टत: अधोदिशा में-रत्नप्रभा पृथ्वी के उपरितन तल के नीचे के क्षुल्लक प्रतरों, ऊर्ध्वदिशा में ज्योतिषी देवलोक के उपरितल को, तथा तिर्यग्दिशा में मनुष्यक्षेत्र में जो ढाई द्वीप-समुद्रक्षेत्र हैं, 15 कर्मभूमियां हैं, तथा छप्पन अन्तद्वीप हैं, उनमें रहे हुए संज्ञी पंचेन्द्रिय वों के मनोगत भावों को जानता-देखता है। विपुलमति क्षेत्र से समग्र ढाई द्वीप, व दो समुद्रों को विशुद्ध रूप से जानता-देखता है / काल से--ऋजुमति जघन्यत: पल्योपम के असंख्यातवें भाग जितने अतीत-अनागत काल को जानता-देखता है, जबकि विपुलमति इसी को स्पष्टतररूप से निर्मलतर जानता-देखता है / भाव से-ऋजुमति समस्त भावों के अनन्तवें भाग को जानता-देखता है, जबकि विपूलमति इन्हें ही विशुद्धतर-स्पष्टतररूप से जानता-देखता है। (5) केवलज्ञान का विषयकेवलज्ञान के दो भेद हैं--भवस्थकेवलज्ञान और सिद्ध केवलज्ञान / केवलज्ञानी सर्वद्रव्य, सर्वक्षेत्र, सर्वकाल और सर्वभावों को युगपत् जानता-देखता है / तीन अज्ञानों का विषय-मति-अज्ञानी मिथ्यादर्शनयुक्त अवग्रह आदि रूप तथा औत्पात्तिकी आदि बुद्धि रूप मति-अज्ञान के द्वारा गृहीत द्रव्यों को द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से जानता-देखता है। श्रुत-अज्ञानी श्रत-अज्ञान (मिथ्याष्टि-परिगृहीत लौकिक श्रुत या कुप्रावनिक श्रुत) से गृहीत (विषयीकृत) द्रव्यों को कहता है, बतलाता है, प्ररूपण करता है। विभंगज्ञानी विभंगज्ञान द्वारा गृहीत द्रव्यों को द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से जानता है और अवधिदर्शन से देखता है।' ज्ञानी और अज्ञानी के स्थितिकाल, अन्तर और अल्पबहत्व का निरूपण 152. गाणी णं भंते ! 'णाणि' ति कालतो केवच्चिरं होतो? गोयमा ! नाणी दुविहे पणत्ते, तं जहा-सादीए का अपज्जवसिते, सादीए वा सपज्जवसिए / तत्थ पंजे से सादीए सपज्जवसिए से जहन्नेणं अंतोमुहतं, उक्कोसेणं छावट्टि सागरोवमाइं सातिरेगा। [152 प्र] भगवन् ! ज्ञानी 'ज्ञानी' के रूप में कितने काल तक रहता है ? [152 उ.] गौतम ! ज्ञानी दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार-सादि-अपर्यवसित और सादि-सपर्यवसित। इनमें से जो सादि-सपर्यवसित (सान्त) ज्ञानी हैं, वे जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त तक, और उत्कृष्टतः कुछ अधिक छियासठ सागरोपम तक ज्ञानीरूप में रहते हैं। 153. प्राभिणिबोहियणाणी णं भंते ! आभिणिबोहियणाणि ति०? / - .. .. ...- . 1. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 357 से 360 तक (ख) मन्दीसूत्र, ज्ञानप्ररूपणा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org