________________ अष्टम शतक : उद्देशक-२ ] [ 289 एवं नाणो, प्राभिणिबोहियनाणी जाव केवलनाणी, अन्नाणी, महअन्नाणो, सुतग्रन्नाणी, विभंगनाणी; एएसि दसह वि संचिटणा जहा कायठितीए / 17 // [153 प्र.] भगवन् ! अाभिनिबोधिक ज्ञानी आभिनिबोधिक-ज्ञानी के रूप में कितने काल तक रहता है ? [153 उ.] गौतम ! ज्ञानी, आभिनिबोधिकज्ञानी यावत् केवलज्ञानी, अज्ञानी, मति-अज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी और विभंगज्ञानी, इन दस का अवस्थितिकाल (प्रज्ञापनासूत्र के अठारहवें) कायस्थितिपद में कहे अनुसार जानना चाहिए / (कालद्वार) 154. अंतरं सब्वं जहा जीवाभिगमें // 18 // [154] इन सब (दसों) का अन्तर जीवाभिगमसूत्र के अनुसार जानना चाहिए / (अन्तरद्वार) 155. अप्पाबहुगाणि तिणि जहा बहुवत्तव्वताए / 19 / [155] इन सबका अल्पबहुत्व (प्रज्ञापनासूत्र के तृतीय-) बहुवक्तव्यता पद के अनुसार जानना चाहिए। (अल्पबहुत्वद्वार) विवेचन-ज्ञानो और अज्ञानी के स्थितिकाल, अन्तर और अल्पबहुत्व का निरूपण -प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. 152 से 155 तक) में कालद्वार (17) अन्तरद्वार (18) और अल्पबहुत्वद्वार (16) के माध्यम से ज्ञानी और अज्ञानी के स्थितिकाल, पारस्परिक अन्तर और उनके अल्पबहत्व का अतिदेशपूर्वक निरूपण किया गया है। ज्ञानी का ज्ञानी के रूप में अवस्थितिकाल-ज्ञानी के दो प्रकार यहाँ बताए गए हैं-सादिअपर्यवसित और सादि-सपर्यवसित / प्रथम ज्ञानी ऐसे हैं, जिनके ज्ञान की आदि तो है, पर अन्त नहीं। ऐसे ज्ञानी केवल ज्ञानी होते हैं। केवलज्ञान का काल सादि-अनन्त है, अर्थात केवलज्ञान उत्पन्न होकर फिर कभी नष्ट नहीं होता / द्वितीय ज्ञानी ऐसा है, जिसको आदि भी है, अन्त भी है / ऐसा ज्ञानी मति आदि चार ज्ञान वाला होता है। मति प्रादि चार ज्ञानों का काल सादि-सपर्यवसित है / इनमें से मति और श्रुतज्ञान का जघन्य स्थितिकाल एक अन्तर्मुहूर्त है / अवधि और मनःपर्यवज्ञान का जघन्य स्थितिकाल एक समय है। आदि के तीनों ज्ञानों का उत्कृष्ट स्थितिकाल कुछ अधिक 66 सागरोपम है। मनःपर्यवज्ञान का उत्कृष्ट स्थितिकाल देशोन करोड़पूर्व का है। अवधिज्ञान का जघन्य स्थिति काल एक समय का इसलिए बताया है कि जब किसी विभंगज्ञानी को सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है, तब सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के प्रथम समय में ही विभंगज्ञान अबधिज्ञान के रूप में परिणत हो जाता है। इसके पश्चात शीघ्र ही दूसरे समय में यदि वह अवधिज्ञान से गिर जाता है तब अवधिज्ञान केवल एक समय ही रहता है। मनःपर्यायज्ञानी का भी अवस्थितिकाल जघन्य एक समय इसलिए बताया है कि अप्रमत्तगुणस्थान में स्थित किसी संयत (मुनि) को मन:पर्यायज्ञान उत्पन्न होता है, और तुरंत ही दूसरे समय में नष्ट हो जाता है / मनःपर्यायज्ञानी का उत्कृष्ट अवस्थितिकाल देशोन पूर्वकोटि वर्ष का इसलिए बताया है कि किसी पूर्वकोटि वर्ष की आयु वाले मनुष्य ने चारित्र अंगीकार किया। चारित्र अंगीकार करते ही उसे मनःपर्यायज्ञान उत्पन्न हो जाए और यावज्जीवन रहे, तो उसका उत्कृष्ट स्थितिकाल किञ्चित् न्यून कोटिवर्ष घटित हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org