________________ 290 [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र त्रिविध अज्ञानियों का तद्र प अज्ञानी के रूप में अवस्थितिकाल-अज्ञानी, मति-अज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी ये तीनों स्थितिकाल की दृष्टि से तीन प्रकार के हैं -(1) अनादि-अपर्यवसित (अनन्त), अभव्यों का होता है। (2) अनादि-सपर्यवसित (सान्त), जो भव्यजीवों का होता है / और (3) सादि-सपर्यवसित (सान्त), जो सम्यग्दर्शन से पतित जीवों का होता है। इनमें से जो सादि-सान्त हैं, उनका जघन्य अवस्थितिकाल अन्तर्मुहर्त का है; क्योंकि कोई जीव सम्यग्दर्शन से पतित होकर अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् ही पुन: सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लेता है। इसका उत्कृष्ट स्थितिकाल अनन्त काल है, क्योंकि कोई जीव सम्यग्दर्शन से पतित होकर अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल व्यतीत कर अथवा वनस्पति आदि में अनन्त उत्सर्पिणी-अवसपिणी व्यतीत करके अनन्तकाल के पश्चात् पुनः सम्यग्दर्शन को प्राप्त करता है / विभंगज्ञान का अवस्थितिकाल जघन्य एक समय है; क्योंकि उत्पन्न होने के पश्चात् उसका दूसरे समय में विनष्ट होना सम्भव है। इसका उत्कृष्ट स्थितिकाल किञ्चित् न्यून पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागरोपम का है, क्योंकि कोई मनुष्य कुछ कम पूर्वकोटि वर्ष तक विभंगज्ञानी बना रह कर सातवें नरक में उत्पन्न हो जाता है, उसकी अपेक्षा से यह कथन है।' पांच ज्ञानों और तीन अज्ञानों का परस्पर प्रन्तरकाल-एक बार ज्ञान अथवा अज्ञान उत्पन्न होकर नष्ट हो जाए और फि वार उत्पन्न हो तो दोनों के बीच का काल अन्तरकाल कहलाता है / यहाँ पांच ज्ञान और तीन अज्ञान के अन्तर के लिए जीवाभिगमसूत्र का अतिदेश किया गया है / वहाँ इस प्रकार से अन्तर बताया गया है आभिनिबोधिक ज्ञान का काल से पारस्परिक अन्तर जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टत: अनन्तकाल तक का या कुछ कम अपार्द्ध पुद्गल परिवर्तन काल का है। इसी प्रकार श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्यायज्ञान के विषय में समझ लेना चाहिए / केवलज्ञान का अन्तर नहीं होता। मति-अज्ञान और श्रुत-अज्ञान का अन्तरकाल जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट कुछ अधिक 66 सागरोपम का है। विभंगज्ञान का अन्तर जघन्य अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल (वनस्पतिकाल जितना) है। पांच ज्ञानी और तीन अज्ञानी जीवों का अल्पबहत्व-पांच ज्ञान और तीन अज्ञान से युक्त जीवों का अल्पबहुत्व प्रज्ञापतासूत्र में बताया गया है। वह संक्षेप में इस प्रकार है-सबसे अल्प मनःपर्यायज्ञानी हैं। क्योंकि मनःपर्यायज्ञान केवल ऋद्धिप्राप्त संयतों को ही होता है / उनसे असंख्यात गुणे अवधिज्ञानी हैं; क्योंकि अवधिज्ञानी जीव चारों गतियों में पाए जाते हैं। उनसे आभिनिबोधिकज्ञानी और श्रुतज्ञानी दोनों तुल्य और विशेषाधिक हैं। इसका कारण यह है कि अवधि आदि ज्ञान से रहित होने पर भी कई पंचेन्द्रिय और कितने ही विकलेन्द्रिय जीव (जिन्हें सास्वादन सम्यग्दर्शन हो) आभिनिबोधिकज्ञानी और श्रुतज्ञानी होते हैं। ग्राभिनिबोधिकज्ञान और श्रुतज्ञान का परस्पर साहचर्य होने से दोनों ज्ञानी तुल्य हैं। इन सभी से सिद्ध अनन्तगुणे होने से केवलज्ञानी जीव अनन्तगुणे हैं / तीन अज्ञानयुक्त जीवों में सबसे थोड़े विभंगज्ञाती हैं, क्योंकि विभंगज्ञान पंचेन्द्रियजीवों को ही होता है। उनसे मति-अज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी दोनों अनन्तगुणे हैं, क्योंकि एकेन्द्रियजीव भी मति-अज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी होते हैं, और वे अनन्त हैं, परस्पर तुल्य भी हैं, क्योंकि इन दोनों का परस्पर साहचर्य है। 1. (क) भगवतीसूत्र अ. बृत्ति, पत्रांक 361 (ख) प्रज्ञापनासूत्र 18 वा कायस्थितिपद (महावीर विद्यालय), पृ. 304-317 2. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 361 (ख) जीवाभिगमसूत्र (अन्तरदर्शक पाठ) सू. 263, पृ. 455 (आगमो.) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org