________________ 20 [ग्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 37. एवं तेइंवियजीवे, एवं चरिदियजीवे वि। |37] इसी प्रकार त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीव के विषय में भी जानना चाहिए। 38. से गं भंते ! उप्पलजीवे पंचेदियतिरिक्खजोणियजीवे, पाँचदियतिरिक्खसोणियजोवे पुणरवि उप्पलजोवे त्ति पुच्छा० / गोयमा ! भवादेसेणं जहन्नेणं दो भवागहणाई, उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाई। कालाएसेणं जहन्नेणं दो अंतोमुहुप्ता, उक्कोसेणं पुत्वकोडिपुहत्तं / एवतियं कालं से हवेज्जा, एवतियं कालं गतिरागति करेज्जा। [38 प्र.] भगवन् ! उत्पल का वह जीब, पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकजीब में जा कर पुनः उत्पल के जीव में पाए तो इसमें उसका कितना काल व्यतीत होता है ? वह कितने काल तक गमनागमन करता रहता है ? [38 उ.] गौतम ! भवादेश से जघन्य दो भव (-ग्रहण) करता है और उत्कृष्ट पाठ भव (चार तियंचपंचेन्द्रिय के और चार भव उत्पल के) (-ग्रहण) करता है। कालादेश से, जघन्य दो अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व काल तक रहता है। इतना काल वह उसमें व्यतीत करता है / इतने काल तक गति-प्रागति करता है। 39. एवं मणुस्सेण वि समं जाब एवतियं कालं गतिरागति करेज्जा / [दारं 27] / [36] इसी प्रकार मनुष्ययोनि के विषय में भी जानना चाहिए। यावत् इतने काल तक उत्पल का वह जीव गमनागमन करता है। [--सत्ताईसवाँ द्वार] विवेचन----उत्पलजीव का अनुबन्ध और कायसंवेध प्रस्तुत 6 सूत्रों (31 से 36 तक) में उत्पलजीव के अनुबन्ध और संवेध के सम्बन्ध में प्ररूपणा की गई है। ___ अनुबन्ध और कायसंवेध-उत्पल का जीव उत्पल के रूप में उत्पन्न होता रहे, उसे अनुबन्ध कहते हैं और उत्पल का जीब पृथ्वीकायादि दूसरे कायों में उत्पन्न हो कर पुन: उत्पल रूप में उत्पन्न हो, इसे कायसंवेध कहते हैं। प्रस्तुत 8 सूत्रों (32 से 36 तक) में उत्पलजीव के संबंध का निरूपण दो प्रकार से भवादेश और कालादेश की अपेक्षा से किया गया है / अर्थात् उत्पल का जीव भव की अपेक्षा से कितने भव ग्रहण करता है और काल की अपेक्षा से कितने काल तक गमनागमन करता है, इसकी प्ररूपणा की गई है।' 28 से 31 तक आहार-स्थिति-समुद्घात-उद्वर्तना-द्वार 40. ते णं मंते ! जीवा किमाहारमाहारेति ? 1. भगवती. विवेचन भा. 4 (पं. घेवरचन्दजी), पृ. 1863 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org