________________ ग्यारहवां शतक : उद्देशक-१] [21 गोयमा ! दध्वो अणंतपदेसियाई दव्वाई०, एवं जहा आहारुद्देसए' वणस्सतिकाइयाणं प्राहारो तहेव जाव सध्वप्पणयाए आहारमाहारेंति, नवरं नियम छद्दिसि, सेसं तं चेव / [दारं 28] / [40 प्र.] भगवन् ! वे उत्पल के जीव किस पदार्थ का आहार करते हैं ? [40 उ.] गौतम ! वे जीव द्रव्यतः अनन्तप्रदेशी द्रव्यों का प्राहार करते हैं इत्यादि, जिस प्रकार प्रज्ञापनासूत्र के अट्ठाईसवें पद के आहार-उद्देशक में वनस्पतिकायिक जीवों के आहार के विषय में कहा है, यावत्-वे सर्वात्मना (सर्वप्रदेशों से) आहार करते हैं, यहाँ तक सब कहना चाहिए / विशेष यह है कि वे नियमतः छह दिशा से आहार करते हैं। शेष सभी वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए। अट्ठाइसवाँ द्वार 41. तेसि णं भंते ! जीवाणं केवतियं कालं ठिती पन्नत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं दस वाससहस्साई / [दारं 29] / [41 प्र.] भगवन् ! उन उत्पल के जीवों की स्थिति कितने काल की है ? [41 उ.] गौतम ! उनकी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहर्त की और उत्कृष्ट दस हजार वर्ष की है। [-उनतीसवाँ द्वार] 42. तसि णं भंते ! जीवाणं कति समुग्धाता पन्नता? गोयमा ! सो समुग्धायारे पन्नता, तं जहा-वेदणासमुग्धाए कसायसमुग्घाए मारणंतियसमुग्घाए / [दारं 30] / [42 प्र.] भगवन् ! उन (उत्पल के) जीवों में कितने समुद्धात कहे गए हैं ? [42 उ.] गौतम ! उनमें तीन समुद्घात कहे गए हैं / यथा-वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात और मारणान्तिकसमुद्घात / 43. ते णं भंते ! जीवा मारणतियसमुग्घाएणं कि समोहया मरंति, असमोहया मरंति ? गोयमा ! समोहया वि मरंति, असमोहया वि मरंति / [43 प्र.] भगवन् ! वे जीव मारणान्तिकसमुद्घात द्वारा समवहत होकर मरते हैं या असमवहत होकर ? [43 उ.] गौतम ! (वे उत्पल के जीव मारणान्तिकसमुद्घात द्वारा) समवहत होकर भी मरते हैं और असमवहत होकर भी मरते हैं / - -- -- 1. देखिये प्रज्ञापमासूत्र भा. 1, पद 20, उ.१, प्र.३९५, सूत्र 1813 (महावीर जैन विद्यालय) 2. समुद्घात के लिए देखो-प्रज्ञापना. पद 36, पत्र 558 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org