________________ 22] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 44. ते णं भंते ! जीवा अणंतरं उध्वट्टित्ता कहिं गच्छति ?, कहि उवबजंति ?, कि नेरइएसु उववज्जति, तिरिक्खजोणिएसु उववजति ? एवं जहा बक्कंतीए' उवट्टणाए वणस्सइकाइयाणं तहा भाणियव्वं / [दारं 31] / |44 प्र. भगवन् ! वे उत्पल के जीव मर (उद्वर्तित हो) कर तुरन्त कहाँ जाते हैं ? कहाँ उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नरयिकों में उत्पन्न होते हैं ? अथवा तियंञ्चयोनिकों . में उत्पन्न होते हैं ? अथवा मनुष्यों में या देवों में उत्पन्न होते हैं ? [44 उ. | गौतम ! (उत्पल के जीवों की अनन्तर उत्पत्ति के विषय में) प्रज्ञापना सूत्र के छठे व्युत्क्रान्तिक पद के उद्वर्तना-प्रकरण में वनस्पतिकायिकों के वर्णन के अनुसार कहना चाहिए। -तीसवाँ इकतीसवाँ द्वार विवेचन –उत्पलजीवों के माहार, स्थिति, समुद्घात और उद्वर्तन विषयक प्ररूपणाप्रस्तुत 5 सूत्रों (40 से 44 तक) में उत्पलजीवों के अाहारादि के विषय में प्ररूपणा की गई है / नियमतः छह दिशा से आहार क्यों ?.-पृथ्वीकायिक आदि जीव सूक्ष्म होने से निष्कुटों (लोक के अन्तिम कोणों) में उत्पन्न हो सकते हैं. इसलिए वे कदाचित तीन, चार या पाँच पाहार लेते हैं तथा नियाघात की अपेक्षा से छहों दिशाओं से आहार लेते हैं। किन्त उत्पल के बादर होने से वे निष्कुटों में उत्पन्न नहीं होते, इसलिए वे नियमतः छहों दिशाओं से पाहार करते हैं।' ___अनन्तर उदवर्तन कहाँ और क्यों ? ----उत्पल के जीव वहाँ से मर कर तुरन्त मनुष्यगति या तिर्यञ्चगति में जन्म लेते हैं, देवगति या नरकगति में उत्पन्न नहीं होते / 45. अह भंते ! सव्वपाणा सबभूया सव्वजीवा सन्चसत्ता उप्पलमूलत्ताए उप्पलकंदत्ताए उप्पल नालताए उप्पलपत्तत्ताए उप्पलकेसरताए उप्पलकष्णियत्ताए उप्पलथिभुगत्ताए उववन्नपुवा? हंता, गोयमा ! अति अदुवा अणंतखुत्तो। [दारं 32] / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० / ॥एक्कारसमे सए पढमो उप्पलुद्देसओ समत्तों // 11. 1 // [45 प्र. भगवन् ! अब प्रश्न यह है कि सभी प्राण, सभी भूत, समस्त जीव और समस्त सत्व; क्या उत्पल के मूलरूप में, उत्पल के कन्दरूप में, उत्पल के नालरूप में, उत्पल के पत्ररूप में, उत्पल के केसररूप में, उत्पल की कणिका के रूप में तथा उत्पल के थिभुग के रूप में इससे (उत्पलपत्र में उत्पन्न होने से पहले उत्पन्न हुए हैं ? |45 उ.] हाँ, गौतम ! (सभी प्राण, भूत, जीव और सत्व, इससे पूर्व) अनेक बार अथवा अनन्तबार (पूर्वोक्तरूप से उत्पन्न हुए है।) [-बत्तीसवाँ द्वार 1. देखिये प्रज्ञापनासूत्र बृत्ति पद 6, पत्र 204 2. भगवती. अ. बत्ति, पत्र 513 3. वही, पत्र 513. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org