________________ ग्यारहवां शतक : उद्देशक-१] [23 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है ! यह इसी प्रकार है !' यों कह कर गौतमस्वामी, यावत् विचरण करते हैं। विवेचन समस्त संसारी जीवों का उत्पल के मूलादि में जन्म प्रस्तुत सूत्र 45 में बताया गया है कि कोई भी संसारी जीव ऐसा नहीं है, जो वर्तमान में जिम गति-योनि में है, उसमें या उससे भिन्न 84 लाख जीवयोनियों में इससे पूर्व अनेक या अनन्त बार उत्पन्न न हुआ हो / इसी दृष्टि से भगवान् ने कहा कि समस्त जीव उत्पल के मूल, कन्द, नाल आदि के रूप में अनेक या अनन्त बार उत्पन्न हो चुके हैं ; इसी जन्म में वे उत्पन्न हुए हों, ऐसी बात नहीं है।'' कठिन शब्दों का भावार्थ उववन्नपुवा--उत्पन्नपूर्द-पहले उत्पन्न हए / कपिणयत्ताए--- कणिका–बीजकोश के रूप में। थिभुगत्ताए या थिभगत्ताए-थिभुग वे हैं जिनमें से पत्ते निकलते हैं, पत्तों का उत्पत्तिस्थान / ' 00 // एकादश शतक : उद्देशक प्रथम समाप्त / / 1. भगवती. विवेचन (पं. घेवरचन्दजी), भा. 4, पृ. 1866 2. (क) बही, भा. 4, पृ. 1864 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 113 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org