________________ ग्यारहवां शतक : उद्देशक-१] [19 [33 प्र.) भगवन् ! वह उत्पल का जीव, अप्काय के रूप में उत्पन्न होकर पुन: उत्पल में अाए तो इसमें कितना काल व्यतीत हो जाता है ? कितने काल तक गमनागमन करता है ? |33 उ. | गौतम! जिस प्रकार पृथ्वीकाय के विषय में कहा, उसी प्रकार भवादेश से और कालादेश से अप्काय के विषय में कहना चाहिए / 34. एवं जहा पुढविजीवे भणिए तहा जाव वाउजीवे भाणियब्वे / [34] इसी प्रकार जैसे—(उत्पलजीव के) पृथ्वीकाय में गमनागमन के विषय में कहा, उसी प्रकार यावत् वायुकाय जीव तक के विषय में कहना चाहिए। 35. से गं भंते ! उप्पलजीवे से वणस्सइजीवे, से वणस्सइजीवे पुणरवि उपलजोवे त्ति केवतियं कालं से हवेज्जा, केवतियं कालं गतिराति करेज्जा ? . गोयमा भवाएसेणं जहन्नेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं अणंताई भवग्गहणाई। कालाएसेणं जहन्नेणं दो अंतोमुत्ता, उक्कोसेणं प्रणतं कालं-तरकालो, एवतियं काल से हवेज्जा, एवइयं कालं गइरागई करेज्जा / [35 प्र.] भगवन् ! वह उत्पल का जीव, वनस्पति के जोव में जाए और वह (वनस्पतिजीव) पुन: उत्पल के जीव में आए, इस प्रकार वह कितने काल तक रहता है ? कितने काल तक गमनागमन करता है ? [25 उ.] गौतम ! भवादेश से वह (उत्पल का जीव) जघन्य दो भव (ग्रहण) करता है और उत्कृष्ट अनन्त भव (-ग्रहण) करता है / कालादेश से जघन्य दो अन्तर्मुहूर्त तक, उत्कृष्ट अनन्तकाल (तरुकाल) तक रहता है / (अर्थात्-) इतने काल तक वह उसी में रहता है, इतने काल तक वह गति-प्रागति करता रहता है। 36. से णं भंते ! उप्पलजोवे बेइंदियजीवे, बेइंदियजीवे पुणरवि उप्पलजोवे त्ति केवतियं कालं से हवेज्जा ? केवतियं कालं गतिरागति करेज्जा ? गोयमा ! भवादेसेणं जहन्नेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं संखेज्जाइं भवग्गहणाइं / कालादेसेणं जहन्नेणं दो अंतोमुत्ता, उक्कोसेणं संखेज्ज कालं / एवतियं कालं से हवेज्जा, एवतियं कालं गतिराति करेज्जा। |36 प्र.] भगवन् ! वह उत्पल का जीव, द्वीन्द्रियजीव पर्याय में जा कर पुन: उत्पलजीव में आए (उत्पन्न हो), तो इसमें उसका कितना काल व्यतीत होता है ? कितने काल तक गमनागमन करता है? 36 उ.] गौतम ! वह जीव भवादेश से जघन्य दो भव (-ग्रहण) करता है, उत्कृष्ट संख्यात भव (-ग्रहण) करता है / कालादेश से जघन्य दो अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट संख्यात काल व्यतीत हो जाता है / (अर्थात् --) इतने काल तक वह उसमें रहता है / इतने काल तक वह गति-प्रागति करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org