________________ 15] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 30. ते णं भंते ! जीवा कि सइंदिया, अणिदिया ? गोयमा ! नो अणिदिया, सईदिए वा सइंदिया वा / [दारं 25] / [30 प्र. भगवन् ! वे उत्पल के जीव सेन्द्रिय हैं या अनिन्द्रिय ? 30 उ.] गौतम ! वे अनिन्द्रिय नहीं, किन्तु एक जीव सेन्द्रिय है और अनेक जीव भी सेन्द्रिय हैं। --24 वाँ, 25 वाँ द्वार] विवेचन-उत्पल जीवों के वेद, वेदबन्धन, संजी और इन्द्रिय की प्ररूपणा--प्रस्तुत चार सूत्रों (27 से 30 तक) में इन चार द्वारों द्वारा उत्पल जीवों के नपुंसकवेदक, त्रिवेदबन्धक, असंज्ञी एवं सेन्द्रिय होने की प्ररूपणा की गई है। २६.२७-अनुबन्ध-संवैध-द्वार 31. से णं भंते ! 'उप्पलजीवे ति कालओ केवचिरं होति ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं असंखेज्ज कालं / [दारं 26] / [31 प्र.] भगवन् ! वह उत्पल का जीव उत्पल के रूप में कितने काल तक रहता है ? 31 उ.] गौतम ! वह जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्टतः असंख्यात काल तक रहता है। [-छन्वीसवाँ द्वार 32. से गं भंते ! उप्पलजीये 'पुढविजीवे' पुणरवि 'उप्पलजीवे' त्ति केवतियं काल से हवेज्जा ? केवतियं कालं गतिराति करेज्जा? गोयमा ! भवादेसेणं जहन्नेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं असंखेज्जाइं भवग्गहणाई / कालादेसेणं जहन्नेगं दो अंतोमुहत्ता, उक्कोसेणं असंखेज कालं / एवतियं कालं से हवेज्जा, एवतियं कालं गतिरागति करेज्जा। [32 प्र.] भगवन् ! वह उत्पल का जीव, पृथ्वीकाय में जाए और पुनः उत्पल का जीव बने, इस प्रकार उसका कितना काल व्यतीत हो जाता है? कितने काल तक गमनागमन (गति-प्रागति) करता रहता है ? [32 उ.] गौतम ! वह उत्पलजीव भवादेश (भव की अपेक्षा) से जघन्य दो भव (ग्रहण) करता है और उत्कृष्ट असंख्यात भव (ग्रहण) करता है (अर्थात्---उतने काल तक गमनागमन करता है।) कालादेश से जघन्य दो अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट असंख्यात काल तक (गमनागमन करता है / ) (अर्थात्--- इतने काल तक) वह रहता है, इतने काल तक गति-आगति करता है। 33. से गं भंते ! उप्पलजीवे आउजीवे ? एवं चेव / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org