________________ 254) [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 27 यदि वह (सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरौपपातिक देव) उत्कृष्टकाल की स्थिति वाले मनुष्यों में उत्पन्न हो तो, उसके सम्बन्ध में यही वक्तव्यता कहनी चाहिए। विशेष यह है कि कालादेश से-- जघन्य और उत्कृष्ट पूर्वकोटि-अधिक तेतीस सागरोपम, इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है / तृतीय गमक] / यहाँ ये तीन ही गमक कहने चाहिए। शेष छह गमक नहीं कहे जाते, (क्योंकि ये बनते नहीं)। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है,' यों कहकर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन--विशिष्ट तथ्यों का स्पष्टीकरण-(१) मनुष्यों में उत्पन्न होने वाले असुरकुमार देव से लेकर ईशानदेव तक की बक्तव्यता के लिए यहाँ पंचेन्द्रिय-तियञ्च-उद्देशक का अतिदेश किया गया है, क्योंकि दोनों की वक्तव्यता समान है। (2) सनत्कुमार आदि की वक्तव्यता में भिन्नता है, अतः उनका कथन पृथक् किया गया है। (3) संवेध का मापदण्ड ---जब औधिक या उत्कृष्ट स्थिति के देव. औधिक आदि मनुष्य में उत्पन्न होते हैं, तब उत्कृष्ट स्थिति और संवेध का कथन करने के लिए चार मनुष्यभव की तथा चार देवभव की स्थिति को जोड़ना चाहिए / प्रानत अदि देवों में उत्कृष्ट 6 भव होते हैं / इसलिए तीन मनुष्य के भवों और तीन देव के भवों की स्थिति को जोड़ कर संवेध करना चाहिए। (4) कल्पातीत देवों में अक्रिय समुद्घात-कल्पातीत देवों में लब्धि की अपेक्षा 5 समुद्घात पाये जाते हैं, किन्तु उनमें दो समुद्घात वैक्रिय और तैजस–अक्रिय रहते हैं। ये दोनों समुद्घात वे कभी करते नहीं, करेंगे भी नहीं और किये भी नहीं / क्योंकि उनको इनसे कोई मतलब नहीं है। (5) प्रथम प्रवयक में जघन्य स्थिति बाईस और उत्कृष्ट तेईस सागरोपम की है। आगे क्रमशः प्रत्येक ग्रे वेयक में क्रमशः एक-एक सागरोपम की वृद्धि होती है / नौवें वेयक में उत्कृष्ट स्थिति 31 सागरोपम की है। वहाँ भवादेश से उत्कृष्ट छह भव होते हैं। इसलिए तीन मनुष्यभव की उत्कष्ट स्थिति तीन पूर्वकोटि और तीन ग्रे वेयकभव की उत्कृष्ट स्थिति 63 सागरोपम की होती है / यह कालादेश से उत्कृष्ट संवेध है। (6) गमक सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरौपपातिक देवों में प्रथम के तीन गमक ही सम्भव होते हैं, क्योंकि उनकी अजघन्य-अनुत्कृष्ट स्थिति 33 सागरोपम की होती है / जघन्य स्थिति न होने से चतुर्थ, पंचम और षष्ठ (छठा), ये तीन गमक नहीं बनते तथा उत्कृष्ट स्थिति न होने से सप्तम, अष्टम और नवम, ये तीन गमक भी नहीं बनते / (7) दष्टि–अनुत्तरौपपातिक देव मिथ्यादृष्टि और सम्यमिथ्यादृष्टि नहीं होते, सम्यग्दष्टि ही होते हैं, जबकि नौ नौवेयक देवों में तीनों दृष्टियाँ पाई जाती हैं / // चौवीसवां शतक : इक्कीसवां उद्देशक सम्पूर्ण // 1. भगवतीमत्र प्रवृत्ति, पत्राक 245-846 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org