________________ 414] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 38. एगमेगस्स गंभंते ! नेरइयस्स एगमेगे जीवपएसे णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स केवइएहि अविभागपलिच्छेदेहि प्रावेढियपरिवेढिते ? / गोयमा! नियमा अणतेहिं / [38 प्र.] भगवन् ! प्रत्येक नैरयिक जीव का प्रत्येक जीवप्रदेश ज्ञानावरणीय कर्म के कितने अविभाग-परिच्छेदों से आवेष्टित-परिवेष्टित होता है ? [38 उ.] गौतम ! वह नियमतः अनन्त अविभाग-परिच्छेदों से आवेष्टित-परिवेष्टित होता है। 36. जहा नेरइयस्स एवं जाव वेमाणियस्स / नवरं मणूसस्स जहा जोवस्म / [39] जिस प्रकार नैरयिक जीवों के विषय में कहा, उसी प्रकार यावत् वैमानिक पर्यन्त कहना चाहिए; परन्तु विशेष इतना है कि मनुष्य का कथन (औधिक-सामान्य) जीव की तरह करना चाहिए। 40. एगमेगस्स णं भंते ! जीवस्स एगमेगे जीवपएसे दरिसणावरणिज्जस्स कम्मरस केवतिएहि ? एवं जहेब नाणावरणिज्जस्स तहेव दंडगो माणियन्वो जाव वेमाणियस्स। [40 प्र.] भगवन् ! प्रत्येक जीव का प्रत्येक जीव-प्रदेश दर्शनावरणीयकर्म के कितने अविभागपरिच्छेदों से आवेष्टित-परिवेष्टित है ? [40 उ.] गौतम ! जैसे ज्ञानावरणीय कर्म के विषय में दण्डक कहा गया है, वैसे यहाँ भी उसी प्रकार वैमानिक-पर्यन्त कहना चाहिए / 41. एवं जाव अंतराइयस्म भाणियब्वं, नवरं वेयणिज्जस्स आउयस्स नामस्स गोयस्स, एएसि चउण्ह वि कम्माणं मणूसस्स जहा नेरइयस्स तहा भाणियव्वं, सेसं तं चेव / [41] इसी प्रकार यावत् अन्तराय कर्म-पर्यन्त कहना चाहिए / विशेष इतना ही है कि वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र इन चार कर्मों के विषय में जिस प्रकार नैरयिक जीवों के लिए कथन किया गया है, उसी प्रकार मनुष्यों के लिए भी कहना चाहिए / शेष सब वर्णन पूर्वोक्त कथनानुसार कहना चाहिए। विवेचन--पाठ कर्मप्रकृतियां, उनके अविभागपरिच्छेद और उनसे प्रावेष्टित-परिवेष्टित समस्त संसारी जीव-प्रस्तुत ग्यारह सूत्रों (सू. 31 से 41 तक) में क्रमश: पाठ कर्मप्रकृतियों, उनसे बद्ध समस्त संसारी जोव, तथा उनके अष्ट कर्मप्रकृतियों के अनन्त-अनन्त अविभागपरिच्छेद, तथा उन अविभागपरिच्छेदों से आवेष्टित-परिवेष्टित समस्त संसारी जीव का निरूपण किया गया है। अविभाग-परिच्छेद की व्याख्या–परिच्छेद का अर्थ है-अंश और अविभाग का अर्थ हैजिसका विभाग न हो सके / अर्थात्-केवलज्ञानी की प्रज्ञा द्वारा भी जिसके विभाग–अंश न किये जा सकें, ऐसे सूक्ष्म (निरंश) अंश को अविभाग-परिच्छेद कहते हैं। दूसरे शब्दों में (कर्म-) दलिकों की अपेक्षा से परमाणुरूप निरंश अंश को अविभाग-परिच्छेद कहा जा सकता है / ज्ञानावरणीय कर्म के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org