________________ अष्टम शतक : उद्देशक-१० ] [415 अनन्त अविभाग-परिच्छेद कहने का अर्थ है-ज्ञानावरणीय कर्म ज्ञान के जितने अंशों ---भेदों को आवृत करता है, उतने ही उसके अविभाग-परिच्छेद होते हैं, और ज्ञानावरणीयकर्मदलिकों की अपेक्षा वे उसके कर्म परमाणुरूप अनन्त होते हैं। प्रत्येक संसारी जीव (मनुष्य के सिवाय) 8 कर्मों में से प्रत्येक कर्म के अनन्त-अनन्त परमाणुओं (अविभाग-परिच्छेदों) से युक्त होता है, तथा उनसे आवेष्टित-परिवेष्टित (अर्थात् गाढरूप से--चारों ओर से लिपटा हुग्रा-बद्ध) होता है। प्रावेष्टित-परिवेष्टित के विषय में विकल्प-ौधिक(सामान्य) जीव-सूत्र में कदाचित् ज्ञानावरणीय कर्म के अविभाग-परिच्छेदों से आवेष्टित-परिवेष्टित न होने की जो बात कही गई है, वह केवली की अपेक्षा से कही गई है; क्योंकि उनके ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय हो चुका है। इसी प्रकार केवलियों के दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय कर्म का भी क्षय हो चुका है, अत: इन घातीकर्मों द्वारा केवलज्ञानियों की आत्मा को ये कर्म आवेष्टित-परिवेष्टित नहीं करते / वेदनोय, आयु, नाम और गोत्र, ये चारों कर्म अघातिक हैं, अतः इनके विषय में मनुष्यपद में कोई अन्तर नहीं पड़ता। क्योंकि ये चारों जैसे छद्मस्थों के होते हैं, वैसे केवलियों के भी होते हैं। सिद्ध भगवान में नहीं होते; इसलिए जीव-पद में इस विषयक भजना है, किन्तु मनुष्यपद में नहीं, क्योंकि केवली भी मनुष्यगति और मनुष्यायु का उदय होने से मनुष्य ही हैं।' आठ कर्मों के परस्पर सहभाव की वक्तव्यता 42, जस्त णं भंते ! नाणावरणिज्जं तस्स दरिसणावरणिज्जं, जस्स दंसणावरणिज्जं तस्स नाणावरणिज्जं? गोयमा ! जस्स णं नाणावरणिज्जं तस्स दसणावरणिज्ज नियमा अस्थि, जस्स गं दरिसणावरणिज्जं तस्स वि नाणावरणिज्ज नियमा अस्थि / [42 प्र.] भगवन् ! जिस जीव के ज्ञानावरणीय कर्म है, उसके क्या दर्शनावरणीय कर्म भी है और जिस जीव के दर्शनावरणीय कर्म है, उसके ज्ञानावरणीय कर्म भी है ? [42 उ.] हाँ गौतम ! जिस जीव के ज्ञानावरणीय कर्म है, उसके नियमतः दर्शनावरणीय कर्म है और जिस जीव के दर्शनावरणीय कर्म है, उनके नियमतः ज्ञानावरणीय कर्म भी है। 43. जस्स णं भंते ! गाणावरणिज्जं तस्स वेणिज्ज, जस्स वेणिज्जं तस्स णाणावरणिज्जं? गोयमा ! जस्स नाणावरणिज्जं तस्स वेयणिज्जं नियमा अस्थि, जस्स पुण वेयणिज्जं तस्स णाणावरणिज्जं सिय अस्थि, सिय नथि। [43 प्र.] भगवन् ! जिस जीव के ज्ञानावरणीय कर्म है, क्या उसके वेदनीय कर्म है, और जिस जीव के वेदनीय कर्म है, क्या उसके ज्ञानावरणीय कर्म भी है ? [43 उ.] गौतम ! जिस जीव के ज्ञानावरणीय कर्म है, उसके नियमत: वेदनीय कर्म है; किन्तु जिस जीव के वेदनीय कर्म है, उसके ज्ञानावरणीय कर्म कदाचित् होता है, कदाचित् नहीं होता। 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 422 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org