________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 44. जस्स णं भंते ! नाणावरणिज्जं तस्स मोहणिज्जं, जस्स मोहणिज्जं तस्स नाणावर. णिज्ज? गोयमा ! जस्स नाणावरणिन्जं तस्स मोहणिज्जं सिय अस्थि सिय नस्थि, जस्स पुण मोहणिज्जं तस्स नाणावरणिज्जं नियमा अस्थि / [44 प्र] भगवन् ! जिसके ज्ञानावरणीय कर्म है, क्या उसके मोहनीय कर्म है, और जिसके मोहनीय कर्म है, क्या उसके ज्ञानावरणीय कर्म है ? [44 उ.] गौतम ! जिसके ज्ञानावरणीय कर्म है, उसके मोहनीय कर्म कदाचित् होता है, कदाचित् नहीं भी होता; किन्तु जिसके मोहनीय कर्म है, उसके ज्ञानावरणीय कर्म नियमतः होता है / 45. [1] जस्स णं भंते ! गाणावरणिज्जं तस्स पाउयं० ? एवं जहा वेयणिज्जेण समं भणियं तहा पाउएण वि समं भाणियव्वं / [45-1 प्र.] भगवन् ! जिसके ज्ञानावरणीय कर्म है, क्या उसके आयुष्यकर्म होता है, और जिसके आयुष्य कर्म है, क्या उसके ज्ञानावरणीय कर्म है ? [45-1 उ.] गौतम ! जिस प्रकार वेदनीय कर्म के साथ (ज्ञानावरणीय के विषय में) कहा गया, उसी प्रकार आयुष्यकर्म के साथ (ज्ञानावरणीय के विषय में) कहना चाहिए। [2] एवं नामेण वि, एवं गोएण वि समं / [45-2] इसी प्रकार नामकर्म और गोत्रकर्म के साथ (ज्ञानावरणीय के विषय में) भी कहना चाहिए। [3] अंतराइएण वि जहा दरिसणावरणिज्जेण समं तहेव नियमा परोप्परं भाणियब्वाणि 1 / [45-3] जिस प्रकार दर्शनावरणीय के साथ (ज्ञानावरणीयकर्म के विषय में) कहा, उसी प्रकार अन्तराय कर्म के साथ (ज्ञानावरणीय के विषय में) भी नियमतः परस्पर सहभाव कहना चाहिए। 46. जस्स णं भंते ! दरिसणावरणिज्जं तस्स वेयणिज्ज, जस्त वेयणिज्जं तस्स दरिसणावरणिज्जं? जहा नाणावरणिज्ज उवरिमेहि सहि कम्मेहि समं भणियं तहा दरिसणावरणिज्जं पि उरिमेहि छहि कम्मे हि समं भाणियध्वं जाव अंतराइएणं 2 / [46 प्र] भगवन् ! जिसके दर्शनावरणीय कर्म है, क्या उसके वेदनीय कर्म होता है, और जिस जीव के वेदनीय कर्म है, क्या उसके दर्शनावरणीय कर्म होता है ? [46 उ.] गौतम ! जिस प्रकार ज्ञानावरणीय कर्म का कथन ऊपर के सात कर्मों के साथ किया गया उसी प्रकार दर्शनावरणीय कर्म का भी ऊपर के छह कर्मों के साथ यावत् अन्तराय कर्म तक कथन करना चाहिए / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org