________________ अष्टम शतक : उद्देशक-१० ] [ 417 47. जस्त णं भंते ! वेयणिज्जं तस्म मोहणि जं, जस्प मोहणिज्जं तस्स वेयणिज्ज ? __ गोयमा ! जस्त वेणिज्ज तस्स मोहणिज्जं सिय अत्थि सिय नत्थि, जस्स पुण मोहणिज्ज तस्स वेणिज्ज नियमा अस्थि / [47 प्र.] भगवन ! जिस जोव के वेदनोयकर्म है, क्या उसके मोहनीयकर्म है, और जिस जीव के मोहनीयकर्म है, क्या उसके वेदनीयकर्म है ? [47 उ.] गौतम ! जिस जीव के वेदनीयकर्म है, उसके मोहनीयकर्म कदाचित् होता है, कदाचित् नहीं भी होता, किन्तु जिस जोव के मोहनीयकर्म है, उसके वेदनीयकर्म नियमत: होता है। 48. जस्स णं भंते ! वेणिज्ज तस्स पाउयं० ? एवं एयाणि परोप्परं नियमः। [48 प्र.] भगवन् ! जिस जीव के वेदनीयकर्म है, क्या उसके आयुष्यकर्म है, और जिसके आयुष्य कर्म है क्या उसके वेदनीयकर्म है ? [.48 उ.] गौतम ! ये दोनों कर्म नियमतः परस्पर साथ-साथ होते हैं / 46. जहा पाउएण समं एवं नामेण वि, गोएण वि समं भाणियव्वं / [46] जिस प्रकार प्रायुष्यकर्म के साथ (बेदनीय कर्म के विषय में) कहा, उसी प्रकार नाम और गोत्रकर्म के साथ भी (वेदनीयकर्म के विषय में) कहना चाहिए। 50. जस्त णं भंते ! बेणिज्जं तस्स अंतराइयं ? पुच्छा। गोयमा! जस्स वेयणिज्जं तस्स अंतराइयं सिय अस्थि सिय नत्यि, जस्स पुण अंतराइयं तस्स वेणिज्जं नियमा अस्थि३। [50 प्र.] भगवन् ! जिस जीव के वेदनीयकर्म है, क्या उसके अन्तरायकर्म है, और जिसके अन्तरायकर्म है, क्या उसके वेदनीयकर्म है ? [50 उ.] गौतम ! जिस जीव के वेदनीयकर्म है, उसके अन्तरायकर्म कदाचित् होता है, कदाचित् नहीं भी होता, परन्तु जिसके अन्तरायकर्म होता है. उसके वेदनीयकर्म नियमत:होता है। 51. जस्स णं भंते ! मोहणिज्ज तस्स पाउयं, जस्स प्राउयं तस्स मोहणिज्जं? गोयमा ! जस्स मोहणिज्जं तस्स पाउयं नियमा अस्थि, जस्स पुण पाउयं तस्स पुण मोहणिज्जं सिय प्रत्यि सिय नस्थि / [51 प्र.] भगवन् ! जिस जीव के मोहनीयकर्म होता है, क्या उसके आयुष्यकर्म होता है, और जिसके आयुष्यकर्म होता है, क्या उसके मोहनीयकर्म होता है ? [51 उ.] गौतम ! जिस जीव के मोहनीयकर्म है, उसके आयुष्यकर्म अवश्य होता है, जिसके प्रायुण्यकर्म है, उसके मोहनोयकर्म कदाचित् होता है, कदाचित् नहीं भी होता / For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org