________________ अष्टम शतक : उद्देशक-10] [413 [2] एवं सब्वजीवाणं अट्ठ कम्मपगडोश्रो ठावेयन्वानो जाव वेमाणियाणं / [32-2] इसी प्रकार वैमानिकपर्यन्त सभी जीवों के आठ कर्मप्रकृतियों की प्ररूपणा करनी चाहिए। 33. नाणावरणिज्जस्स गं भंते ! कम्मरस केवतिया अविभागपलिच्छेदा पण्णता ? गोयमा ! अणंता अविभागपलिच्छेदा पण्णत्ता। [33 प्र.] भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्म के कितने अविभाग-परिच्छेद कहे गए हैं ? [33 उ.] गौतम ! उसके अनन्त अविभाग-परिच्छेद कहे गए हैं / 34. नेरइयाणं भंते ! गाणावरणिज्जस्स कम्मस्स केवतिया अविभागलिच्छेया पण्णता ? गोयमा ! प्रणंता अविभागपलिच्छेदा पणत्ता। [34 प्र.] भगवन् ! नैरयिकों के ज्ञानावरणीयकर्म के कितने अविभाग-परिच्छेद कहे गए हैं? [34 उ.] गौतम ! उनके अनन्त अविभाग-परिच्छेद कहे गए हैं। 35. एवं सव्वजीवाणं जाव वेमाणियाणं पुच्छा। गोयमा ! अगंता अविभागपलिच्छेदा पण्णत्ता। [35 प्र.] भगवन् ! इसी प्रकार वैमानिकपर्यन्त सभी जीवों के ज्ञानावरणीय कर्म के कितने अविभाग-परिच्छेद कहे गए हैं ? [35 उ.] गौतम ! अनन्त अविभाग-परिच्छेद कहे गए हैं / 36. एवं जहा पाणावरणिज्जस्स प्रविभागपलिच्छेदा भणिया तहा प्र?ण्ह वि कम्मपगडोणं माणियव्वा जाव वेमाणियाणं अंतराइयस्स / [36] जिस प्रकार (सभी जीवों के) ज्ञानावरणीय कर्म के (अनन्त) अविभाग-परिच्छेद कहे हैं, उसी प्रकार वैमानिक-पर्यन्त सभी जीवों के यावत् अन्तराय कर्म तक पाठों कर्मप्रकतियों के [प्रत्येक के अनन्त-अनन्त) अविभाग-परिच्छेद कहने चाहिए। 37. एगमेगस्स णं भंते ! जीवस्स एगमेगे जीवपएसे णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स केवइएहि अविमागपलिच्छेदेहि यावेढियपरिवेदिए सिया ? गोयमा ! सिय प्रावेढियपरिवेढिए, सिय नो प्रावेढियपरिवेढिए। जइ प्रावेढियपरिवेढिए नियमा अणतेहि। [37 प्र. भगवन ! प्रत्येक जीव का प्रत्येक जीवप्रदेश ज्ञानावरणीय कर्म के कितने अवि. भाग-परिच्छेदों से आवेष्टित-परिवेष्टित है ? [37 उ.] हे गौतम ! वह कदाचित् आवेष्टित-परिवेष्टित होता है, कदाचित् प्रावेष्टित. परिवेष्टित नहीं होता। यदि आवेष्टित-परिवेष्टित होता है तो वह नियमतः अनन्त अविभाग-परिच्छेदों से होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org