________________ 412 / व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र में आठों ही भंग पाए जाते हैं। चारप्रदेशी से लेकर यावत् अनन्तप्रदेशी पुद्गलास्तिकाय तक में प्रत्येक में आठ-पाठ भंग पाए जाते हैं।' लोकाकाश के और प्रत्येक जीव के प्रदेश 26. केवतिया णं भंते ! लोयागासपएसा पण्णता ? गोयमा ! प्रसंखेज्जा लोयागासपएसा पण्णत्ता। [26 प्र] भगवन् ! लोकाकाश के प्रदेश कितने कहे गए हैं ? [26 उ.] गौतम ! लोकाकाश के असंख्येय प्रदेश कहे गए हैं / 30. एगमेगस्स णं भंते ! जीवस्स केवइया जीवपएसा पण्णत्ता? गोयमा ! जावतिया लोगागासपएसा एगमेगस्स गं जीवस्स एवतिया जीवपएसा पण्णता / [30 प्र] भगवन् ! एक-एक जीव के कितने-कितने जीवप्रदेश कहे गए हैं ? [30 उ.] गौतम ! लोकाकाश के जितने प्रदेश कहे गए हैं, उतने ही एक-एक जीव के जीवप्रदेश कहे गए हैं। विवेचन-लोकाकाश के प्रौर प्रत्येक जीव के प्रदेश---प्रस्तुत दो सूत्रों में से प्रथम (सू. 26) सूत्र में लोकाकाश के प्रदेशों का तथा द्वितीय (सू. 30) सूत्र में एक-एक जीव के प्रदेशों का निरूपण किया गया है। लोकाकाशप्रदेश और जीवप्रदेश को तुल्यता-लोक असंख्यातप्रदेशी है, इसलिए उसके प्रदेश असंख्याता हैं। जितने लोक के प्रदेश हैं, उतने ही एक जीव के प्रदेश हैं / जब जीव, केवलीसमुद्घात करता है, तब वह आत्मप्रदेशों से सम्पूर्ण लोक को व्याप्त कर देता है; अर्थात्-लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर एक-एक जीवप्रदेश अवस्थित हो जाता है। आठ कर्मप्रकृतियां, उनके अविभागपरिच्छेद और प्रावेष्टित-परिवेष्टित समस्त संसारी जीव 31. कति णं भंते ! कम्मपगडीमो पण्णत्तानो ? गोयमा ! अट्ठ कम्मपगडीओ पण्णत्तानो, तं जहा-नाणावरणिज्जं जाव अंतराइयं / [31 प्र.] भगवन् ! कर्मप्रकृतियां कितनी कही गई हैं ? [31 उ.] गौतम ! कर्मप्रकृतियां आठ कही गई हैं / यथा--ज्ञानावरणीय यावत् अन्तराय / 32. [1] नेरइयाणं भंते ! कइ कम्मपगडीयो पण्णत्तानो ? गोयमा! अट्ठ। [32-1 प्र.] भगवन् ! नै रयिकों के कितनी कर्मप्रकृतियां कही गई हैं ? [32-1 उ.] गौतम ! (उनके) आठ कर्मप्रकृतियां (कही गई है।) 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 421 2. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 21 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org