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________________ सोलहवां शतक : उद्देशक 3 [549 वेद-बन्धः-एक कर्मप्रकृति के वेदन के समय अन्य कितनी कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता है, यह जिस उद्देशक में कहा गया है वह प्रज्ञापना का 26 वाँ पद वेद-बन्ध उद्देशक है / बन्ध-वेदः-एक कर्मप्रकृति को बाँधता हा जीव, कितनी कर्मप्रकृतियाँ वेदता है, यह प्रज्ञापना का 25 वाँ पद बंध-वेद उद्देशक है / बन्ध-बन्धः-एक कर्मप्रकृति को बांधता हुना जीव दूसरी कितनी कर्मप्रकृतियों को बांधता है, यह जिस में बताया गया है, वह प्रज्ञापनासूत्र का 24 वा पद बन्ध-बन्ध उद्देशकरूप है / ' प्रज्ञापना के अनुसार उत्तर-(१) प्रस्तुत पाठ में एक कर्मप्रकृति को वेदते समय आठ कर्मप्रकृतियों को वेदता है, यह पौधिक रूप से उत्तर है। उसका आशय यह है कि सामान्यतया जीव आठों कर्मप्रकृतियों को वेदता है। किन्तु जब मोहनीयकर्म का क्षय या उपशय हो जाता है, तब सात (मोहनीय के सिवाय) कर्मप्रकृतियों को वेदता है, और चार घातिकर्म क्षय होने पर शेष चार अघातिकर्मप्रकृतियों को वेदता है। (2) वेद-बन्ध पद के अनुसार ज्ञानावरणीय कर्म को वेदता हा जीव सात, पाठ, छह या एक कर्मप्रकृति का बन्ध करता है / जब आयुष्यकर्म का बन्ध करता है, तब पाठ कर्मप्रकृतियों का बन्ध करता है, जब आयुष्यबन्ध नहीं करता तब सात कर्मप्रकृतियों का बन्ध करता है / सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान में आयुष्य और मोहनीय के सिवाय छह कर्मप्रकृतियों का बन्ध करता है। उपशान्तमोहादि दो गुणस्थानों में केवल एक वेदनीय कर्म को बांधता है। (3) 'बन्ध-वेद' पद के अनुसार----ज्ञानावरणीय कर्म को बांधता हुमा जीव, अवश्य ही आठ कर्मों को वेदता है, इत्यादि वर्णन वहाँ से जान लेना चाहिए / (4) 'बन्ध-बन्ध' पद के अनुसार-ज्ञानावरणीय कर्म को बांधता हुआ जीव सात, पाठ या छह कर्मप्रकृतियों को बांधता है। प्रायुष्य नहीं बांधता तब सात, आयुष्य सहित आठ और मोहनीय तथा प्रायुष्य के बिना 6 कर्मप्रकृतियों को बांधता है; इत्यादि वर्णन वहाँ से जान लेना चाहिए। मूल पाठ में 'वेयावेओ' आदि पदों में प्राकृभाषा के कारण दीर्घ हो गया है / कायोत्सर्गस्थ अनगार के अर्श-छेदक को तथा अनगार को लगने वाली क्रिया 5. तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नदा कदायि रायगिहाओ नगराओ गुणसिलाओ चेतियाओ पडिनिक्खमति, प० 2 बहिया जणवयविहारं विहरति / [5] किसी समय एक दिन श्रमण भगवान् महावीर राजगृहनगर के गुणशीलक नामक उद्यान से निकले और बाहर के (अन्य) जनपदों में विहार करने लगे। 6. तेणं कालेणं तेणं समएणं उल्लुयतोरे नामं नगरे होत्था / वण्णनो। [6] उस काल उस समय में उल्लूकतीर नाम का नगर था / उसका वर्णन नगरवर्णनवत् जान लेना चाहिए। 1. पाणवणासुत्तं भा. 1 (मूलपाठ-टिप्पण) श्रीमहावीर जैन विद्यालय सू. 1787-92, सू. 1775-86, सूत्र. 1769-74, सू. 1754-68 पृ. 391, 389,388, 385 / 2. भगवती, अ. वृत्ति, पत्र 703 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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