________________ 550] व्याख्याप्रजाप्तिसूत्र 7. तस्स णं उल्लुयतीरस्त नगरस्स बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसिभाए, एस्थ णं एगजंबुए नाम चेतिए होत्था / वण्णो / [7] उस उल्लकतीर नगर के बाहर उत्तर-पूर्व दिशाभाग (ईशान कोण) में 'एकजम्बूक' नामक उद्यान था। उसका वर्णन पूर्ववत् / 8. तए गं समणे भगवं महावीरे अन्नदा कदायि पुन्वाणुपुब्धि चरमाणे जाव एगजंबुए समोसढे / जाव परिसा पडिगया। [8] एक वार किसी दिन श्रमण भगवान महावीर स्वामी अनुक्रम से विचरण करते हुए यावत् 'एक जम्बूक' उद्यान में पधारे। यावत् परिषद् (धर्मदेशना श्रवण कर) लौट गई / 9. 'भंते !'त्ति भगवं गोयमे समर्ण भगवं महावीरं वदति नमसति, 2 एवं वदासि [6] 'भगवन् !' यो सम्बोधन करके भगवान् गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दना-नमस्कार किया और फिर इस प्रकार पूछा-- 10. अणगारस्स णं भंते ! भावियप्पणो छट्ठछट्टणं प्रणिक्खित्तेणं जाव आतावेमाणस्स तस्स णं पुरथिमेणं अव दिवसं नो कप्पति हत्थं वा पायं वा बाहं वा ऊरुवा पाउंटावेत्तए वा पसारेत्तए वा, पच्चस्थिमेणं से अव दिवसं कप्पति हत्थ वा पायं वा जाव ऊरुवा आउंटावेतए वा पसारेत्तए वा / तस्स य अंसियानो लंबंति, तं च वेज्जे अदक्खु, ईसि पाडेति, ई० 2 अंसियाओ छिदेज्जा। से नणं भंते ! जे छिदति तस्स किरिया कज्जति ? जस्स छिज्जति नो तस्स किरिया कज्जइ बऽन्नत्थेगेणं धम्मंतराइएणं? हंता, गोयमा! जे छिदति जाव धम्मतराइएणं / सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्तिक / // सोलसमे सए : तइश्रो उद्देसओ समत्तो / / 13-3 / / [10 प्र.] भगवन् ! निरन्तर छठ-छठ (बेले-बेले) के तपश्चरण के साथ यावत् अातापना लेते हुए भावितात्मा अनगार को (कायोत्सर्ग में) दिवस के पूर्वार्द्ध में अपने हाथ, पैर, बांह या ऊरु (जंघा) को सिकोड़ना या पसारना कल्पनीय नहीं है, किन्तु दिवस के पश्चिमार्द्ध (पिछले आधे भाग) में अपने हाथ, पैर या यावत् ऊरु को सिकोड़ना या फैलाना कल्पनीय है। इस प्रकार कायोत्सर्गस्थित उस भावितात्मा अनगार को नासिका में प्रर्श (मस्सा) लटक रहा हो। उस अर्श को किसी वैद्य ने देखा और यदि वह वैद्य उस अर्श को काटने के लिए उस ऋषि को भूमि पर लिटाए, फिर उसके अर्श को काटे; तो हे भगवन् ! क्या जो वैद्य अर्श काटता है, उसे क्रिया लगती है ? तथा जिस (अनगार) का अर्श काटा जा रहा है, उसे एक मात्र धर्मान्तरायिक क्रिया के सिवाय दूसरी क्रिया तो नहीं लगती? [10 उ.] हाँ, गौतम ! जो (अर्श को) काटता है, उसे (शुभ) क्रिया लगती है और जिसका अर्श काटा जा रहा है, उस ऋषि को धर्मान्तराय के सिवाय अन्य कोई क्रिया नहीं लगती। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org