________________ सोलहवां शतक : उद्देशक 3] . [551 हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन--राजगह से विहार करके उल्लकतीर नगर के बाहर एकजम्बूक उद्यान में गणधर गौतम द्वारा कायोत्सर्गस्थ भावितात्मा अनगार के अर्श छेदक वैद्य को तथा उक्त अनगार को लगने वाली क्रिया के विषय में भगवान से पूछा गया प्रश्न और उसका उत्तर प्रस्तुत 6 सूत्रों (सू. 5 से 10 तक) में अंकित है।' अर्श-छेदन में लगने वाली क्रिया-दिन के पिछले भाग में कायोत्सर्ग में स्थित न होने से हस्तादि अंगों को सिकोड़ना-पसारना कल्पनीय है / कायोत्सर्ग में रहे हुए उस भावितात्मा अनगार की नासिका में लटकते हुए अर्श को देख कर कोई वैद्य उक्त अनगार को भूमि पर लिटा कर धर्मबुद्धि से अर्श को काटे तो उस वैद्य को सत्कार्य-प्रवृत्तिरूप शुभ क्रिया लगती है, किन्तु लोभादिवश अर्शछेदन करे तो उसे अशुभ क्रिया लगती है। जिस साधु के अर्श को छेदा जा रहा है, उसे निर्यापार होने के कारण एक धर्मान्त राय क्रिया के सिवाय और कोई क्रिया नहीं लगती। शुभध्यान में विच्छेद (अन्तराय) पड़ने से अथवा अर्श-छेदन के अनुमोदन से उसे धर्मान्तरायरूप क्रिया लगती है। कठिनशब्दार्थ-पुरथिमेणं-दिवस के पूर्वभाग में पूर्वाह्न में। अबढं दिवसं - अपार्द्ध दिवस तक / पच्चत्थिमेणं-दिवस के पश्चिम (पिछले) भाग में / अंसियानो--अर्श, चर्णिकार के अनुसार जो नासिका पर लटक रहा हो। अदक्ल देखा। ईसि पाडेह-उस ऋषि को अर्श काटने के लिए भूमि पर लिटाता है। नन्नत्थ-इसके सिवाय / / ॥सोलहवां शतक : तृतीय उद्देशक समाप्त // 1. वियाहपण्णत्तिसूत' (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 2, पृ. 751-752 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 704 3. वही, अ, वृत्ति, पत्र 704 उल्लू कतीर नगर वर्तमान में 'उल्लूबेड़िया' (बद्ध मान के निकट) पश्चिमबंगाल में है, सम्भवत: वही हो। -सं. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org